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तृतीय अध्ययन]
[५३ अंतरंग समीप में रहने वाले पुरुषों को अथवा जिन अंगरक्षकों को वह शिर अथवा शिर के कवच तुल्य मानता था उनको तथा मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन सम्बन्धी और परिजनों को धन, स्वर्ण रत्न और उत्तम सारभूत द्रव्यों के द्वारा तथा रुपयों पैसों का लोभ देकर उससे (चोरसेनापति से) जुदा करने का प्रयत्न करता है और अभग्नसेन चोरसेनापति को भी बार-बार महाप्रयोजन वाली, सविशेष मूल्य वाली, बड़े पुरुष को देने योग्य यहाँ तक कि राजा के योग्य भेंट भेजने लगा। इस तरह भेंट भेजकर अभग्नसेन चोरसेनापति को विश्वास में ले आता है।
विवेचन–'सीसगभमा' के दो संस्कृत प्रतिरूप होते हैं। एक 'शिष्यकत्रमाः' और दूसरा 'शीर्षकभ्रमाः'। इन दोनों प्रतिरूपों को लक्ष्य में रखकर इसके तीन अर्थ सम्भावित हैं
१-शिष्य अर्थ को सूचित करने वाला—दूसरा शब्द शिष्यक है, जिसमें शिष्यत्व की भ्रान्ति हो उसे शिष्यकभ्रम कहा जाता है अर्थात् जो विनीत होने के कारण शिष्य तुल्य है।
२—शिर रक्षक होने के कारण जिन्हें शिर अथवा शिर के कवच के समान माना जाता है अर्थात् जो शिर के कवच की भांति शिर की रक्षा करते हैं।
३–शरीर रक्षक होने के नाते जिनको शरीर तुल्य समझा जाता है, वे भी शीर्षकभ्रम कहे जाते हैं। • २६-तए णं से महाबले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नबरे एगं महं महइमहालयं कूडागारसालं करेइ—अणेग-खंभसयसन्निविट्ठ पासाईयं दरिसणिज्जं। तए णं से महाबले राया अन्नया कयाइ पुरिमताले नयरे उस्सुक्कं जाव उक्करं अभडप्पवेसं अदंडिमकुदंडिमं अधरिमं अधारणज्जिं अणुद्धयमुइंगं अमिलायमल्लदामं गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालायराणुचरियं पमुइयपक्कीलाभिरामं जहारिहं ) दसरत्तं पमोयं घोसावेइ, घोसावेत्ता कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ, सद्दावेत्ता एवं वयासी—'गच्छह णं तुब्भे, देवाणुप्पिया! सालाडवीए चोरपल्लीए। तत्थ णं तुब्भे अभग्गसेणं चोरसेणावई करयल जाव एवं वयह
२६—तदनन्तर किसी अन्य समय महाबल राजा ने पुरिमताल नगर में महती—प्रशस्त, सुन्दर व अत्यन्त विशाल, मन में हर्ष उत्पन्न करने वाली, दर्शनीय, जिसे देखने पर भी आखें न थकें ऐसी सैकड़ों स्तम्भों वाली कूटाकारशाला बनवायी। उसके बाद महाबल नरेश ने किसी समय उस षड्यन्त्र के लिए बनवाई कूटाकारशाला के निमित्त उच्छुल्क-(जिसमें राजदेयभाग–महसूल माफ कर दिया हो) यावत् दश दिन के प्रमोद उत्सव की उद्घोषणा कराई। कौटुम्बिक पुरुषों को बुलाकर कहा कि हे भद्रपुरुषो! तुम शालाटवी चोरपल्ली में जाओ और वहाँ अभग्नसेन चोरसेनापति से दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दस नखों वाली अञ्जलि करके, इस प्रकार निवेदन करो
विवेचन-कूट पर्वत के शिखर का नाम है । कूट के समान जिसका आकार हो उसे कूटाकारशाला कहते हैं, अर्थात् जिस भवन का आकार पर्वत की चोटी के समान हो।
१–उच्छुल्क—जिस उत्सव में राजकीय कर—महसूल न लिया जाता हो। २–उत्कर—जिसमें दुकान के लिये ली गयी जमीन का भाड़ा अथवा क्रय-विक्रय के लिये.