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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध देहं वा पातयेयम्' अर्थात् हर प्रयत्न से कार्य को सिद्ध करके ही विराम लूंगा, अन्यथा देह का उत्सर्ग कर दूंगा। इस प्रतिज्ञा से आबद्ध होने का दृढ़तम संकल्प आर्द्रचर्म पर आरोहित होने से प्रतीत होता है।
तीसरी मान्यता यह है कि जिस तरह आर्द्रचर्म फैलता है, वृद्धि को प्राप्त होता है, उसी प्रकार इस पर आरोहण करने वाला भी धन-जनादि परम समृद्धि के वृद्धि रूप प्रसार को उपलब्ध करता है। इसी महत्त्वाकांक्षा रूष भावना को सन्मुख रखते हुए अभग्नसेन और उसके पाँच सौ साथियों ने आर्द्रचर्म पर आरोहण किया।
___२४–तए णं से दंडे जेणेव अभग्गसेणे चोरसेणावई तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा सद्धिं संपलग्गे यावि होत्था। तए णं अभग्गसेणे चोरसेणावई तं दण्डं खिप्पामेव हयमहिय जाव(पवरवीर-घाइय-विवडियचिंध-धय-पडागं दिसोदिसिं) पडिसेहेइ।
२४—उसके बाद वह कोतवाल जहाँ अभग्नसेन चोरसेनापति था, वहाँ पर आता है, ओर आकर अभग्नसेन चोरसेनापति के साथ युद्ध में संप्रवृत्त हो जाता है। तदनन्तर, अभग्नसेन चोर सेनापति ने उस दण्डनायक को शीघ्र ही हतमथित कर दिया अर्थात् उस कोतवाल की सेना का हनन किया, वीरों का घात किया, ध्वजा पताका को नष्ट कर दिया, दण्डनायक का भी मानमर्दन कर उसे और उसके साथियों को इधर उधर भगा दिया।
२५–तए णं से दण्डे अभग्गसेणेणं चोरसेणावइणा हय० जाव पडिसेहिए समाणे अथामे अबले अवीरिए अपुरिसक्कारपरक्कमे अधरणिज्जमिति कट्ट जेणेव पुरिमताले नयरे, जेणेव महाबले राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल-जाव एवं वयासी—एवं खलु, सामी! अभग्गसेणे चोरसेणवई विसमदुग्गगहणं लिए गहियभत्तपाणिए। नो खलु से सक्का केणइ सुबहुएणावि आसबलेण वा हथिबलेण वा रहबलेण वा चाउरंगेण वि उरं उरेणं गिण्हित्तए।'
ताहे सामेण य भेएण य उवप्पयायेण यविस्संभमाणेउं पयत्ते यावि होत्था। जे वि से अब्भितरगा सीसगभमा,मित्त-नाइ-नियग-सयण-संबंधि-परियणंच विउलेण,धन-कणग-रयणसतंसार-सावएज्जेणं भिन्दइ, अभग्गसेणस्स य चोरसेणावईस्स अभिक्खणं अभिक्खणं महत्थाडं महग्घाइं महरिहाई पाहुडाइं पेसेइ, अभग्गसेणं चोरसेणावई वीसंभमाणेह।
२५—तदनन्तर अभग्नसेन चोरसेनापति के द्वारा हत-मथित यावत् प्रतिषेधित होने से तेजोहीन, बलहीन, वीर्यहीन तथा पुरुषार्थ और पराक्रम से हीन हुआ वह दण्डनायक शत्रुसेना को परास्त करना अशक्य जानकर पुनः पुरिमतालनगर में महाबल नरेश के पास आकर दोनों हाथ जोड़कर मस्तक पर दसों नखों की अञ्जलि कर इस प्रकार कहने लगा।
प्रभो! चोरसेनापति अभग्नसेन ऊँचे, नीचे और दुर्ग-गहन वन में पर्याप्त खाद्य तथा पेय सामग्री के साथ अवस्थित है। अत: बहुत अश्वबल, गजबल, योद्धाबल और रथबल, कहाँ तक कहूँ-चतुरङ्गिणी सेना के साक्षात् बल से भी वह जीते जी पकड़ा नहीं जा सकता है!
दण्डनायक के ऐसा कहने पर महाबल राजा सामनीति, भेदनीति व उपप्रदाननीति—दाननीति से उसे विश्वास में लाने के लिये प्रवृत्त हुआ। तदर्थ वह उसके (चोरसेनापति के) शिष्यभ्रम—शिष्य तुल्य,