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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तच्चित्ते तम्मणे तल्लेसे तदझवसाणे तदट्ठोवउत्ते तदप्पियकरणे तब्भावणाभाविए सुदरिसणाए गणियाए बहूणि अंतराणि य छिद्दाणि य विवराणि य पडिजागरमाणे पडिजागरमाणे विहरइ।
तए णं से सगडे दारए अन्नया कयाइ सुदरिसणाए गणियाए अंतरंलभेइ, लभेत्ता सुदरिसणाए गणियाए गिहं रहसियं अणुप्पविसइ, अणुप्पविसित्ता सुदरिसणाए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
घर से निकाला गया शकट सुदर्शना वेश्या में मूछित, गृद्ध, अत्यन्त आसक्त होकर अन्यत्र कहीं भी सुख चैन, रति, शान्ति नहीं पा रहा था। उसका चित्त, मन, लेश्या अध्यवसाय उसी में लीन रहता था। वह सुदर्शना के विषय में ही सोचा करता, उसमें करणों को लगाए रहता, उसी की भावना से भावित रहता। वह उसके पास जाने की ताक में रहता और अवसर देखता रहता था। एक बार उसे अवसर मिल गया। वह सुदर्शना के घर में घुस गया और फिर उसके साथ भोग भोगने लगा।
१२-इमं च णं सुसेणे अमच्चे बहाए जाव सव्वालंकारविभूसिए मणुस्सवग्गुराए परिक्खित्ते जेणेव सुदरिसणाए गणियाए गेहे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता सगडं दारयं सुदरिसणाए गणियाए सद्धिं उरालाई भोगभोगाइं जमाणं पासइ, पासित्ता आसुरुत्ते जाव मिसमिसेमाणे तिवलियं भिउडिं निडाले साहटु सगडं दारयं पुरिसेहिं गिण्हावेइ, गिण्हावेत्ता अट्ठि जाव (मुट्ठि-जाणु-कोप्परपहारसंभग्गमहियं करेइ, करित्ता अवओडयबन्धणं करेइ, करेत्ता जेणेव महचंदे राया तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता करयल जाव एवं वयासी-एवं खलु सामी! सगडे दारए मम अंतेउरंसि अवरद्धे।'
तए णं से महचंदे राया सुसेणं अमच्चं एवं वयासी—'तुमं चेवणं, देवाणुप्पिया! सगडस्स दारगस्स दंडं वत्तेहि।'
तए णं से सुसेणे अमच्चे महचंदेणं रन्ना अब्भणुनाए समाणे सगडं दारयं सुदरिसणं च गणियं एएणं विहाणेणं वझं आणवेइ।
तं एवं खलु, गोयमा! सगडे दारए पुरापोराणाणं दुच्चिण्णाणं जाव पच्चणुभवमाणे विहरइ।
१२—इधर एक दिन स्नान करके तथा सर्व अलङ्कारों से विभूषित होकर अनेक मनुष्यों से परिवेष्टित सुषेण मन्त्री सुदर्शना के घर पर आया। आते ही उसने सुदर्शना के साथ यथारुचि कामभोगों का उपभोग करते हुए शकट कुमार को देखा। देखकर वह क्रोध के वश लाल-पीला हो, दांत पीसता हुआ मस्तक पर तीन सल वाली भृकुटि चढ़ा लेता है। शकट कुमार को अपने पुरुषों से पकड़वाकर यष्टियों, मुट्ठियों, घुटनों, कोहनियों से उसके शरीर को मथित कर अवकोटकबन्धन से जकड़वा लेता है। तदनन्तर उसे महाराज महचन्द्र के पास ले जाकर दोनों हाथ जोड़कर तथा मस्तक पर दसों नखवाली अञ्जलि करके इस प्रकार निवेदन करता है—'स्वामिन् ! इस शकट कुमार ने मेरे अन्तःपुर में प्रवेश करने का अपराध किया है।'
इसके उत्तर में महाराज महचन्द्र सुषेण मन्त्री से इस प्रकार बोले—'देवानुप्रिय! तुम ही इसको