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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध हुआ। वह निर्णय नामक अण्डवणिक् नरक से निकलकर विजय नामक चोरसेनापति की स्कन्दश्री भार्या के उदर में पुत्र रूप में उत्पन्न हुआ।
१३–तए णं तीसे खन्दसिरीए भारियाए अन्नया कयाइ तिण्हं मासाणं बहुपडिपुण्णाणं इमे एयारूवे दोहले पाउब्भूए। धन्नाओ णं ताओ अम्मयाओ जाओ णं बहूहि मित्त-नाइ-नियगसयण-संबंधि-परियणमहिलाहिं अन्नाहि य चोरमहिलाहिं सद्धिं संपरिवुडा ण्हाया कयबलिकम्मा जाव (कयकोउयमंगल-) पायच्छित्ता सव्वालंकारविभूसिया विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं सुरं च मन्जं च आसाएमाणी विसाएमाणी परिभाएमाणी परिभुजेमाणी विहरंति। जिमियभुत्तत्तरागयाओ पुरिसनेवत्थिया सन्नद्धबद्धवम्मियकवइया जाव' गहियाउहप्पहरणा भरिएहिं फलएहिं, निक्किट्ठाहिं असीहिं, अंसागएहिं तोणेहिं सजीवेहिं धणूहि, समुक्खित्तेहिं सरेहिं, समुल्लासियाहिं दामाहिं लंबियाहि य ओसारियाहिं उरुघंटाहिं, छिप्पतुरेणं वजमाणेणं महया उक्किट्ठ जाव (सीहनाय-बोल-कलकलरवेणं ) समुद्दरवभूयं पिव करेमाणीओ सालाडवीए चोरपल्लीए सव्वओ समंता आलोएमाणीओ आलोएमाणीओ आहिंडमाणीओ दोहलं विणेन्ति। तं जड़ अहं पि जाव दोहलं. विणिज्जामि' त्ति कटु तंसि दोहलंसि अविणिज्जमाणंसि जाव सुक्का भुक्खा जाव अट्टज्झाणोवगया भूमिगयदिट्ठीया झियाइ।
१३—किसी अन्य समय लगभग तीन मास परिपूर्ण होने पर स्कन्दश्री को यह दोहद (संकल्प) उत्पन्न हुआ—वे माताएँ धन्य हैं, जो मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धियों और परिजनों की महिलाओं तथा अन्य महिलाओं से परिवृत्त होकर स्नान यावत् अनिष्टोत्पादक स्वप्नादि को निष्फल बनाने के लिए प्रायश्चित्त रूप में माङ्गलिक कृत्यों को करके सर्वप्रकार के अलंकारों से अलंकृत हो, बहुत प्रकार के अशन, पान, खादिम स्वादिम पदार्थों तथा सुरा, मधु, मेरक, जाति और प्रसन्नादि मदिराओं का आस्वादन विस्वादन, परिभाजन और परिभोग करती हुई विचरती हैं, तथा भोजन के पश्चात् जो उचित स्थान पर उपस्थित हुई हैं, जिन्होंने पुरुष का वेष पहना हुआ है और जो दृढ़ बन्धनों से बंधे हुए, लोहमय कसूलक आदि से युक्त कवच-लोहमय बख्तर को शरीर पर धारण किए हुए हैं, यावत् आयुध और प्रहरणों से युक्त हैं तथा वाम हस्त में धारण किये हुए फलक-ढालों से, कोश-म्यान से बाहर निकली हुई तलवारों से, कन्धे पर रखे हुए तरकशों से ऊँचे किये हुए पाशों-जालों अथवा शस्त्रविशेषों, से, सजीव-प्रत्यंचा युक्त धनुषों से, सम्यक्तया फेंके जाने वाले बाणों से, लटकती व अवसारित चालित जंघा-घण्टियों के द्वारा तथा क्षिप्रतूर्य (शीघ्र बजाया जाने वला बाजा) बजाने से महान् उत्कृष्ट-आनन्दमय महाध्वनि से समुद्र की आवाज के समान आकाशमण्डल को शब्दायमान करती हुई शालाटवी नामक चोरपल्ली के चारों ओर अवलोकन तथा उसके चारों तरफ भ्रमण करती हुई अपना दोहद पूर्ण करती है।
क्या अच्छा हो यदि मैं भी इसी भांति अपने दोहद को पूर्ण करूँ? ऐसा विचार करने के पश्चात् वह दोहद के पूर्ण न होने से उदास हुई, दुबली पतली और जमीन पर नजर गड़ाए आर्तध्यान करने लगी।
१४–तए णं से विजए चोरसेणावई खंदसिरि भारियं ओहयमणसंकप्पं जाव पासइ,
१. द्वि.अ., सूत्र-६