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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध तए णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचधाईपरिग्गहिए जाव परिवड्डइ। तए णं से अभग्गसेणे कुमारे उम्मुक्कबालभावे यावि होत्था।अट्ठदारियाओ, जाव अट्ठओ दाओ। उप्पि पासाए भुंजमाणे विहरइ।
१६—तदनन्तर उस चोर सेनापति की पत्नी स्कन्दश्री ने नौमास के परिपूर्ण होने पर पुत्र को जन्म दिया। विजय चोरसेनापति ने भी दश दिन पर्यन्त महान् वैभव के साथ स्थिति-पतित-कुलक्रमागत उत्सव मनाया। उसके बाद बालक के जन्म के ग्यारहवें दिन विपुल अशन, पान, खादिम और स्वादिम तैयार कराया। मित्र, ज्ञाति, स्वजनों आदि को आमन्त्रित किया, जिमाया और उनके सामने इस प्रकार, 'जिस समय यह बालक गर्भ में आया था, उस समय इसकी माता को एक दोहद उत्पन्न हआ था (उस दोहद को भग्न नहीं होने दिया) अत: माता को जो दोहद.उत्पन्न हुआ वह अभग्न रहा तथा निर्विघ्न सम्पन्न हुआ। इसलिये इस बालक का 'अभग्नसेन' यह नामकरण किया जाता है। तदनन्तर वह अभग्नसेन बालक क्षीरधात्री आदि पांच धायमाताओं के द्वारा संभाला जाता हुआ वृद्धि को प्राप्त होने लगा। अनुक्रम से कुमार अभग्नसेन ने बाल्यावस्था को पार करके युवावस्था में प्रवेश किया। आठ कन्याओं के साथ उसका विवाह हुआ। विवाह में उसके माता-पिता ने आठ-आठ प्रकार की वस्तुएँ प्रीतिदान-दहेज में दी और वह ऊँचे प्रासादों में रहकर मनुष्य सम्बन्धी भोगों का उपभोग करने लगा।
१७—तए णं से विजए चोरसेणावई अन्नया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते।
तए णं से अभग्गसेणे कुमारे पंचहिं चोरसएहिं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे, कंदमाणे, विलवमाणे विजयस्स चोरसेणावइस्स महया इड्डीसक्कारसमुदएणं नीहरणं करेइ, करेत्ता, बहूई लोइयाइं मच्चकिच्चाई करेइ, करेत्ता केणइ कालेणं अप्पसोए जाए यावि होत्था।
१७–तत्पश्चात् किसी समय वह विजय चोरसेनापति कालधर्म (मरण) को प्राप्त हो गया।
उसकी मृत्यु पर कुमार अभग्नसेन ने पांच सौ चोरों के साथ रोते हुए, आक्रन्दन करते हुए और विलाप करते हुए अत्यन्त ठाठ के साथ एवं सत्कार सम्मान के साथ विजय चोरसेनापति का नीहरणदाहसंस्कार किया। बहुत से लौकिक मृतककृत्य अर्थात् दाहसंस्कार से लेकर पिता के निमित्त किए जाने वाले दान भोजनादि कार्य किए। थोड़े समय के पश्चात् अभग्नसेन शोक रहित हो गया।
१८–तए णं ते चोरपंचसयाइं अन्नया कयाइ अभग्गसेणं कुमारं सालाडवीए चोरपल्लीए महया महया इड्डीसक्कारेणं चोरसेणावइत्ताए अभिसिंचंति।तए णं से अभग्गसेणे कुमारे चोरसेणावई जाए अहम्मिए जाव कप्पायं गिण्हइ।
१८-तदनन्तर उन पांच सौ चोरों ने बड़े महोत्सव के साथ अभग्नेसन को शालाटवी नामक चोरपल्ली में चोर सेनापति के पद पर प्रतिस्थापित किया। सेनापति के पद पर नियुक्त हुआ वह अभग्नसेन, अधार्मिक, अधर्मनिष्ठ, अधर्मदर्शी एवं अधर्म का आचरण करता हुआ यावत् राजदेय कर महसूल को भी ग्रहण करने लगा।
१. द्वि. अ., सूत्र १६ २. तृ.अ., सूत्र-४-५