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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध दढप्पहारे, साहसिए, सद्दवेही परिवसइ असिलट्ठिपढममल्ले।से णं तत्थ सालाडीवए चोरपल्लीए पंचण्हं चोरसयाणं आहेवच्चं जाव (पोरेवच्चं सामित्तं भद्वित्तं महत्तरगत्तं आणाईसर-सेणावच्चं कारेमाणे पालेमाणे) विहरइ।
___४–उस शालाटवी चोरपल्ली में विजय नाम का चोर सेनापति रहता था। वह महा अधर्मी था यावत् (अधर्मनिष्ठ, अधर्म की बात करने वाला, अधर्म का अनुयायी, अधर्मदर्शी, अधर्म में अनुराग वाला, अधर्माचारशील, अधर्म से जीवन-यापन करने वाला, मारो, काटो, छेदो, भेदो, ऐसा ही बोलने वाला था) उसके हाथ सदा खून से रंगे रहते थे। उसका नाम अनेक नगरों में फैला हुआ था। वह शूरवीर, दृढप्रहरी, साहसी, शब्दवेधी-(बिना देखे मात्र शब्द से लक्ष्य का ज्ञान प्राप्त कर बींधने वाला) तथा तलवार लाठी का अग्रगण्य-प्रधान योद्धा था। वह सेनापति उस चोरपल्ली में पांच सौ चोरों का स्वामित्व, अग्रेसरत्व, नेतृत्व, बड़प्पन करता हुआ रहता था।
५-तत्थ णं से विजय चोरसेणावई बहूणं चोराण य पारदारियाण य गंठिभेयाण य संधिच्छेयाण य खंडपट्टाण य अन्नेसिं च बहूणं छिन्न-भिन्न बाहिराहियाणं कुडंगे यावि होत्था।
तए णं से विजय चोरसेणावई पुरिमतालस्स नयरस्स उत्तरपुरथिमिल्लं जणवयं बहूहिं गामघाएहि य नगरघाएहि य गोग्गहणेहि य बन्दिग्गहणेहि च पन्थकोट्टेहि य खत्त-खणणेहि य ओवीलेमाणे, विद्धंसेमाणे, तज्जेमाणे तालेमाणे नित्थाणे निधणे निक्कणे करेमाणे विहरइ महाबलसं रण्णो अभिक्खणं अभिक्खणं कप्पायं गेण्हइ।
५—तदनन्तर वह विजय नामक चोरसेनापति अनेक चोर, पारदारिक-परस्त्रीलम्पट, ग्रन्थिभेदक-गांठ काटने वाले, सन्धिच्छेदक सेंध लगाने वाले जुआरी) धूर्त वगैरह लोग (कि जिनके पास पहिनने के लिये वस्त्र-खण्ड भी न हो) तथा अन्य बहुत से छिन्न-हाथ आदि जिनके कटे हुए हैं, भिन्न–नासिका आदि से रहित तथा शिष्टमण्डली से बहिष्कृत व्यक्तियों के लिये कुटङ्क-बांस के वन के समान गोपक या संरक्षक था।
वह विजय चोरसेनापति पुरिमताल नगर के ईशान कोणगत जनपद-देश-को अनेक ग्रामों को नष्ट करने से, अनेक नगरों का नाश करने से, गाय आदि पशुओं के अपहरण से, कैदियों को चुराने से, पथिकों को लूटने से, खात—सेंध लगाकर चोरी करने से, पीड़ित करता हुआ, विध्वस्त करता हुआ, तर्जित–तर्जनायुक्त करता हुआ, चाबुक आदि से ताडित करता हुआ, स्नानरहित धनरहित तथा धान्यादि से रहित करता हुआ तथा महाबल राजा के राजदेयकर—महसूल को भी बारम्बार स्वयं ग्रहण करता हुआ समय व्यतीत करता था। अभग्नसेन
६–तस्स णं विजयस्स चोरसेणावइस्स खन्दसिरी नामं भारिया होत्था, अहीण०। तस्स णं विजयचोरसेणावइस्स पुत्ते खंदसिरीए भारियाए अत्तए अभग्गसेणे नामं दारए होत्था, अहीण
१. द्वि. अ., सूत्र-३