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द्वितीय अध्ययन]
[३७ भाण्डसार के जलमग्न हो जाने के साथ विजयमित्र सार्थवाह की मृत्यु के वृत्तान्त को सुना, तब वह पतिवियोगजन्य महान् शोक से ग्रस्त हो गई। कुल्हाड़े से कटी हुई चम्पक वृक्ष की शाखा की तरह धड़ाम से पृथ्वीतल पर गिर पड़ी। तत्पश्चात् वह सुभद्रा-सार्थवाही एक मुहूर्त के अनन्तर अर्थात् कुछ समय के पश्चात् आश्वस्त हो अनेक मित्रों, ज्ञातिजनों, स्वजनों, सम्बन्धियों तथा परिजनों से घिरी हुई रुदन क्रन्दन विलाप करती हुई विजयमित्र के लौकिक मृतक-क्रियाकर्म करती है। तदनन्तर वह सुभद्रा सार्थवाही किसी अन्य समय लवणसमुद्र में पति का गमन, लक्ष्मी का विनाश, पोत-जहाज का जलमग्न होना तथा पति की मृत्यु की चिन्ता में निमग्न रहती हुई कालधर्म-मृत्यु को प्राप्त हो गयी।
२०-तए णं ते नगरगुत्तिया सुभदं सत्थवाहिं कालगयं जाणित्ता उज्झियगं दारगं सयाओ गिहाओ निच्छुभेन्ति, निच्छुभित्ता तं गिहं अन्नस्स दलयन्ति।
तए णं से उज्झियए दारए सयाओ गिहाओ निच्छूढे समाणे वाणियगामे नगरे सिंघाडग जाव(तिग-चउक्क-चच्चर-महापह-) पहेसु जूयखलएसु, वेसियाघरेसु पाणागारेसुय सुहंसुहेणं परिवड्डइ। तए णं से उज्झियए दारए अणोहट्टिए अनिवारए सच्छन्दमई सइरप्पयारे मज्जप्पसंगी चोरजूयवेसदारप्पसंगी जाए यावि होत्था।तए णं से उज्झियए अन्नया कयाइं कामज्झयाए गणियाए संपलग्गे जाए यावि होत्था।कामज्झयाए गणियाए सद्धिं विउलाई उरालाई माणुस्सगाई भोगभोगाई भुंजमाणे विहरइ।
२०–तदनन्तर नगररक्षक पुरुषों ने सुभद्रा सार्थवाही की मृत्यु के समाचार जानकर उज्झितक कुमार को अपने घर से निकाल दिया और उसके घर को किसी दूसरे को (जो उज्झितक के पिता से रुपये मांगता था, अधिकारी लोगों ने उज्झितक को निकाल कर रुपयों के बदले उसका घर उस उत्तमर्ण को) सौंप दिया।
अपने घर से निकाला जाने पर वह उज्झितक कुमार वाणिजग्राम नगर के त्रिपथ, चतुष्पथ, चत्वर, राजमार्ग एवं सामान्य मार्गों पर, घूतगृहों, वेश्यागृहों व मद्यपानगृहों में सुखपूर्वक भटकने लगा। तदनन्तर बेरोकटोक स्वच्छन्दमति एवं निरंकुश बना हुआ वह चौर्यकर्म, द्यूतकर्म, वेश्यागमन और परस्त्रीगमन में आसक्त हो गया। तत्पश्चात् किसी समय कामध्वजा वेश्या के साथ विपुल, उदार-प्रधान मनुष्य सम्बन्धी विषयभोगों का उपभोग करता हुआ समय व्यतीत करने लगा।
२१–तए णं तस्स विजयमित्तस्स रन्नो अन्नया कयाइ सिरीए देवीए जोणिसूले पाउब्भूए यावि होत्था। नो संचाएइ विजयमित्ते राया सिरीए देवीए सद्धिं उरालाई माणुस्सगाई भोग-भोगाई भुंजमाणे विहरित्तए।
तए णं विजयमित्ते राया अन्नया कयाई उझियदारयं कामज्झाए गणियाए गिहाओ निच्छुभावेइ,निच्छुभावित्ता कामज्झयं गणियं अब्भितरियं ठावेइ, ठावइत्ता कामज्झयाए गणिआए सद्धि उरालाई भोगभोगाइं भुंजमाणे विहरइ।
२१–तदनन्तर उस विजयमित्र राजा की श्री नामक देवी को योनिशूल (योनि में होने वाला वेदना-प्रधान रोग) उत्पन्न हो गया। इसलिए विजयमित्र राजा अपनी रानी के साथ उदार-प्रधान मनुष्य