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[विपाकसूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध
को सुनकर तथा अवधारणा कर हस्तिनापुर के गौ आदि नागरिक पशु भयभीत व उद्विग्न होकर चारों तरफ भागने लगे, अतः इस बालक का नाम गोत्रास (गाय आदि पशुओं को त्रास देने वाला) रक्खा जाता है । तदनन्तर यथासमय उस गोत्रास नामक बालक ने बाल्यावस्था को त्याग कर युवावस्था में प्रवेश
किया ।
१४ – त णं से भी कूडग्गाहे अन्यया कयाइ कालधम्मुणा संजुत्ते । तए णं से गोत्तास दारए बहुएणं मित्त-नाइ - नियग-सयण सम्बन्धि-परियणेणं सद्धिं संपरिवुडे रोयमाणे कन्दमाणे विलवाणे भीमस्स कूडग्गाहस्स नीहरणं करेड्र, करेत्ता बहूहिं लोइयमयकिच्चाई करेइ । तए णं से सुनंदे या गोत्तासं दारयं अन्नया कयाइ सयमेव कूडग्गाहत्ताए ठावेइ । तए णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहे जाए यावि होत्था — अहम्मिए जाव दुप्पडियाणंदे ।
१४–तत्पश्चात् (गोत्रास के युवक हो जाने पर) भीम कूटग्राह किसी समय कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ। तब गोत्रास बालक ने अपने मित्र, ज्ञाति, निजक, स्वजन, सम्बन्धी और परिजनों से परिवृत होकर रुदन, विलपन तथा आक्रन्दन करते हुए अपने पिता भीम कूटग्राह का दाहसंस्कार किया। अनेक लौकिक मृतक-क्रियाएँ कीं । तदनन्तर सुनन्द नामक राजा ने किसी समय स्वयमेव गोत्रास बालक को कूटग्राह के पद पर नियुक्त किया। गोत्रास भी ( अपने पिता की ही भांति महान् अधर्मी व दुष्प्रत्यानन्द ( बड़ी कठिनता से प्रसन्न होने वाला) था।
१५ – णं से गोत्तासे दारए कूडग्गाहित्ताए कल्लाकल्लिं अद्धरत्तियकालसमयंसि एगे अबीए सन्नद्धबद्धकवए जाव गहियाउहप्पहरणे सयाओ गिहाओ निग्गच्छइ, निग्गच्छित्ता जेणेव गोमण्डवे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता बहूणं नगरगोरूवाणं सणाहाण य जाव' वियंगेइ, जेणेव सए गिहे तेणेव उवागए। तए णं से गोत्तासे कूडगाहे तेहिं बहूहिं गोमंसेहि य सोल्लेहि य जाव (तलिएहि य भज्जिएहि य परिसुक्केहिय लावणेहि य सुरं च ६ आसाएमाणे विसाएमाणे जाव विहरइ । तए णं से गोत्तासए कूडग्गाहे एयकम्मे एयप्पहाणे एयविज्जे एयसमायारे सुबहु पावकम्मं समज्जिणित्ता पंचवाससयाइं परमाउयं पालइत्ता अट्टदुहट्टोवगए । कालमासे कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसं तिसागरोवमठिइएस नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्ने ।
१५—उसके बाद वह गोत्रास कूटग्राह प्रतिदिन आधी रात्रि के समय सैनिक की तरह तैयार होकर कवच पहिनकर और शस्त्रास्त्रों को धारण कर अपने घर से निकलता। निकलकर गोमण्डप में जाता । वहाँ पर अनेक गौ आदि नागरिक पशुओं के अङ्गोपाङ्गों को काटकर अपने घर आ जाता। आकर उन गौ आदि पशुओं के शूलपक्व, तले, भुने, सूखे और नमकीन मांसों के साथ मदिरा आदि का आस्वादन, विस्वादन करता हुआ जीवनयापन करता ।
तदनन्तर वह गोत्रास कूटग्राह इस प्रकार के कर्मों वाला, इस प्रकार के कार्यों में प्रधानता रखने वाला, इस प्रकार की पाप-विद्या को जानने वाला तथा ऐसे क्रूर आचरणों वाला नाना प्रकार के पापकर्मों का उपार्जन कर पाँच सौ वर्ष का पूरा आयुष्य भोगकर चिन्ता और दुःख से पीड़ित होकर मरणावसर में
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द्वि. अ. सूत्र ८