________________
(२) स्थिति-संक्रमण (३) अनुभाव-संक्रमण, (४) प्रदेश-संक्रमण।३४
(६) उदय-कर्म का फलदान उदय है। यदि कर्म अपना फल देकर निजीर्ण हो तो वह फुलोदय है और फल दिये बिना ही उदय में आकर नष्ट हो जाये। प्रदेशोदय है।
(७) उदीरणा नियत समय से पूर्व कर्म का उदय में आना उदीरणा है। जैसे समय के पर्व ही प्रयत्न ने आम आदि फल पकाये जाते हैं वैसे ही साधना से आबद्ध कर्म का नियत समय सेपूर्व भोग कर क्षय किया जा सकता है। सामान्यतः यह नियम है कि जिस कर्म का उदय होता है उसी के सजातीय कर्म की उदीरणा होती है।
(८) उपशमन कर्मों के विद्यमान रहते हुए भी उदय में आने के लिए उन्हें अक्षम बना देना उपशम है। अर्थात् कर्म की वह अवस्था जिसमें उदय अथवा उदीरणा संभव नहीं, किन्तु उद्वर्तन, अपवर्तन और संमण की संभावना हो, वह उपशमन है। जैसे अंगारे को राख से इस प्रकार आच्छादित कर देना जिससे वह अपना कार्य न कर सके। किन्त जैसे आवरण के हटते ही अंगारे जलाने लगते हैं वैसे ही उपशम भाव के दर होते ही उपशान्त कर्म उदय में आकर अपना फल देन प्रारम्भ कर देते हैं।
(९) निधत्ति—जिसमें कर्मों काउदय और संक्रमण न होसके किन्तु उद्वर्तन-अपवर्तन की संभावना हो, वह निधत्ति१३६ है। यह भी चार प्रकार का है।९३७ (१) प्रकृति-निधत्त, (२) स्थिति-निधत्त, (३) अनुभाव-निधत्त, (४) प्रदेश-निधत्त।
(१०) निकाचित—जिसमें उद्वर्तन, अपवर्तन, संक्रमण एवं उदीरणा इन चारों अवस्थाओं का अभाव हो, वह निकाचित है। अर्थात् आत्मा ने जिस रूप में कर्म बांधा है उसी रूप में भोगे बिना उसकी निर्जरा नहीं होती। वह भी प्रकृति, स्थिति, अनुभाग और प्रदेश रूप में चार प्रकार का है।१३८
(११) अबाधाकाल-कर्म बंधने के पश्चात् अमुक समय तक फल न देने की अवस्था कानाम अबाध अवस्था है। अबाधाकाल को जानने का प्रकार यह है कि जिस कर्म की स्थिति जितने सागरोपम की है उतेन ही सौ वर्ष का उसका अबाधाकाल होता है। जैसे ज्ञानावरणीय की स्थिति तीस कोटाकोटि सागरोपम की है तो अबाधाकाल तीस सौ (तीन हजार) वर्ष का है।९३९ भगवती में मल अष्ट कर्मप्रकृतियों का अबाधाकाल बताया है और प्रज्ञापना२४० में उनकी उत्तर-प्रकृतियों का भी अबाधाकाल उल्लिखित है, विशेष जिज्ञासुओं को मूलग्रन्थ देखने चाहिए।
जैन कर्मसाहित्य में कर्मों की इन अवस्थाओं एवं प्रक्रिया का जैसा विश्लेज्ञण है, वैसा अन्य दार्शनिकों के साहित्य में दृग्गोचर नहीं होता। हाँ, योगदर्शन में नियत-विपाकी अनियतविपाकी और आवायगमन के रूप में कर्म की त्रिविध दशा का उल्लेख किया है। नियतविपाकी कर्म का अर्थ है—जो नियत समय पर अपना फल देकर ही नष्ट होता है। अनियतविपाकी कर्म का अर्थ है जो कर्म बिना फल दिये ही आत्मा से पृथक हो जाते हैं और आवायगमन
१३४. (क) तत्त्वार्थसूत्र १। ४ सर्वार्थसिद्धि (ख) उत्तराध्ययन २८। २४ नेमिचन्द्रीय टीका १३५. स्थानाङ्ग ४।२१६ १३६. कर्मप्रकृति गा. २ १३७. स्थनाङ्ग ४। २९६ १३८. स्थानाङ्ग २। २९६ १३९. भगवती २।३ १४०. प्रज्ञापना २३। २। २१-२९
- [४४]