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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता सरीसवेसु उववन्जिहिइ। तत्थ णं कालं किच्चा दोच्चाए पुढवीए उक्कोसियाए तिण्णि सागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववजिहिइ ।
से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता पक्खीसु उववन्जिहिइ। तत्थ वि कालं किच्चा, तच्चाए पुढवीए सत्त सागरोवमट्ठिएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववन्जिहिति।
से णं तओ सीहेसु। तयाणंतरं चोत्थीए। उरगो, पंचमीए। इत्थीओ, छट्ठीए। मणुओ, अहे सत्तमीए। तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता से जाइंइमाइं जलयरपंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं मच्छ-कच्छभ गाह-मगर-सुंसुमाराईणं अड्डतेरस-जाइकूल-कोडिजोणिपमुहसयसहस्साइं, तत्थ णं एगमेगंसि जोणिविहाणंसि अणेगसयसहस्सुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता, तत्थेव भुज्जो भुजो पच्चायाइस्सइ।से णं तओ अणंतरं उवट्टित्ता चउप्पएसु एवं उरपरिसप्पेसु, भूयपरिसप्पपेसु, खहयरेसु, चउरिदिएसु, तेइंदिएसु, वेइन्दिएसु, वणप्फइए कडुयरुक्खेसु, कडुयदुद्धिएसु, वाउ-तेउ-आउ-पुढवीसु अणेगसयसहस्सखुत्तो उद्दाइत्ता उद्दाइत्ता तत्थेव भुज्जो भुज्जो पच्चायाइस्सइ।।
से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता सुपइट्ठपुरे नयरे गोणत्ताए पच्चायाहिइ। सेणं तत्थ उम्मुक्कबालभावे अन्नया कयाइ पढमपाउसंसि गंगाए महानईए खलीणमट्ठियं खणमाणे तडीए पेल्लिए समाणे कालगए तत्थेव सुपइट्ठपुरे नयरे सेष्टिकुलंसि पुमत्ताए पच्चीयाहिस्सइ।
से णं तत्थ उम्मुक्कबालभावे विण्णायपरिणयमेत्ते जोव्वणगमणुप्पत्ते तहारूवाणं थेराणं अंतिए धम्म सोच्चा निसम्म मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पव्वइस्सइ। से णं तत्थ अणगारे भविस्सइ, इरियासमिए जाव(भासासमिए एसणासमिए आयाणभंडमत्तणिक्खेवणासमिए, मणगुत्ते वयगुत्ते कायगुत्ते, गुत्ते गुत्तिदिए गुत्त-) बंभयारी। से णं तत्थ बहूई वासाइं सामण्णपरियागं पाउणित्ता आलोइयपडिक्कंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किच्चा सोहम्मे कप्पे देवत्ताए उववन्जिहिइ। से णं तओ अणंतरं चयं चइत्ता महाविदेहे वासे जाई कुलाई भवंति अड्डाई जहा दढपइन्ने, सा चेव वत्तव्वया, कलाओ जाव सिज्झिहिइ।
एवं खलु जंबू! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं पढमस्स अज्झयणस्स अयमढे पन्नत्ते त्ति बेमि।
॥पढमं अज्झयणं समत्तं॥ ३१-(गौतम स्वामी के प्रश्न का उत्तर देते हुए भगवान् श्री ने कहा-) हे गौतम ! मृगापुत्र दारक २६ वर्ष के परिपूर्ण आयुष्य को भोगकर मृत्यु का समय आने पर काल करके इस जम्बूद्वीप नामक द्वीप के अन्तर्गत भारतवर्ष में वैताढ्य पर्वत की तलहटी में सिंहकुल में सिंह के रूप में उत्पन्न होगा। वह सिंह महा अधर्मी तथा पापकर्म में साहसी बनकर अधिक से अधिक पापरूप कर्म एकत्रित करेगा। वह सिंह मृत्यु का समय आने पर मृत्यु को पाप्त होकर इस रत्नप्रभापृथ्वी नामक पहली नरकभूमि में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति एक सागरोपम की है; उन नारकियों में उत्पन्न होगा। अन्तररहित—बिना व्यवधान के पहली नरक से निकलकर सीधा सरीसृपों (भुजओं अथवा छाती के बल से चलने वाले तिर्यञ्च प्राणियों) की योनियों में उत्पन्न होगा। वहाँ से काल करके दूसरे नरक में, जिसकी उत्कृष्ट स्थिति तीन सागरोपम की हे, उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सीधा पक्षी-योनि में उत्पन्न होगा। वहाँ से मृत्यु के समय काल करके सात-सागरोपम की उत्कृष्ट स्थिति वाले तीसरे नरक में उत्पन्न होगा। वहाँ से निकलकर सिंह की योनि में