________________
प्रथम अध्ययन ]
[९
समुत्पन्नकुतूहल होकर श्री जम्बूस्वामी उठने को तैयार हुए, तैयार होकर, उठकर खड़े हुए, खड़े होकर जिस स्थान पर आर्य सुधर्मा स्वामी विराजमान थे, उसी स्थान पर पधार गये। दाहिनी ओर से बायीं ओर तीन बार अञ्जलिबद्ध हाथ घुमाकर आवर्तनपूर्वक प्रदक्षिणा करने के पश्चता वन्दना - नमस्कार करके आर्य सुधर्मा स्वामी से न बहुत दूर और न बहुत पास, सुधर्मा स्वामी की सेवा करते हुए विनय पूर्वक इस प्रकार बोले
विवेचन — प्रस्तुत पाठ में जात श्रद्ध, उत्पन्न श्रद्ध, संजातश्रद्ध और समुत्पन्न श्रद्ध आदि विशेषण प्रयोग किये गये हैं, वे मन में उत्पन्न होने वाली क्रमिक अवस्थाओं के द्योतक हैं। प्रथम तीन अवग्रह रूप, दूसरे तीन ईहारूप और तीसरे तीन अवायरूप और चौथे तीन धारणारूप समझना चाहिए।
४—– जइ णं भंते! समणेणं भगवया महावीरेणं जाव' संपत्तेणं दसमस्स अंगस्स पण्हावागरणस्स अयमट्ठे पन्नत्ते, एक्कारसमस्स णं भंते! अंगस्स विवागसुयस्स समणेणं जाव संपत्ते के अट्ठे पन्नत्ते ?
४—हे भगवन् ! यदि मोक्ष को प्राप्त हुए श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने प्रश्नव्याकरण नामक दसवें अङ्ग का यह अर्थ प्रतिपादित किया है तो विपाकश्रुत नामक ग्यारहवें अङ्ग का यावत् मोक्ष को सम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने क्या अर्थ प्रतिपादित किया है ?
सुधर्मा स्वामी का उत्तर
.५ तए णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबुं अणगारं एवं वयासी—' एवं खलु, जंबु ! समणेणं जावरे संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नत्ता; तं जहा —— दुहविवागा य सुहविवागाय ।'
जइ णं भंते! समणेणं जाव संपत्तेणं एक्कारसमस्स अंगस्स विवागसुयस्स दो सुयक्खंधा पन्नता, तं जहा — दुहविवागा य सुहविवागा य, पढमस्स णं, भंते! सुयक्खंधस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव' संपत्तेणं कई अज्झयणा पन्नत्ता ?
५—तदनन्तर आर्य सुधर्मा स्वामी ने ( अपने सुविनीत शिष्य) श्री जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा—हे जम्बू (धर्म की आदि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक) मोक्षसंलब्ध भगवान् श्रीमहावीर स्वामी ने विपाकश्रुत (जिसमें शुभ-अशुभ कर्मों के सुख-दुःख रूप विपाक — परिणामों का दृष्टान्तपूर्वक कथन है) नाम के ग्यारहवें अङ्ग के दो श्रुतस्कन्ध प्रतिपादित किये हैं, जैसे कि—दुःखविपाक और सुखविपाक । हे भगवन् ! यदि मोक्ष को उपलब्ध श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने विपाकश्रुत संज्ञक एकादशवें अङ्ग के दुःखविपाक और सुखविपाक नामक दो श्रुतस्कन्ध कहे हैं, तो हे प्रभो ! दुःखविपाक नामक प्रथम श्रुतस्कन्ध के मोक्षसम्प्राप्त श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने कितने अध्ययन प्रतिपादित किये हैं ?
६—तए णं अज्जसुहम्मे अणगारे जंबुं एवं वयासी — एवं खलु जम्बू ! समणेणं... आइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता, तं जहा१-२-३-४-५. यहाँ ' जाव' शब्द से भगवती, समवायाङ्ग आदि सूत्रों में उल्लिखित तथा नमोत्थु णं पाठ में भगवान् के जितने विशेषण बताए गए हैं, वे समझ लेना चाहिए।