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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध मियापुत्ते य उज्झियए अभग्ग, सगडे बहस्सई नन्दी ।
उंबर सोरियदत्ते य देवदत्ता य अंजू य ॥१॥ ६–तत्पश्चात् आर्य सुधर्मास्वामी ने अपने अन्तेवासी श्री जम्बू अनगार को इस प्रकार कहा—'हे जम्बू! धर्म की आदि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक, मोक्ष को उपलब्ध श्री श्रमण भगवान् महावीर स्वामी ने दुखविपाक के दस अध्ययन फरमाये हैं जैसे कि-'
(१) मृगापुत्र (२) उज्झितक (३) अभग्नसेन (४) शकट (५) बृहस्पति (६) नन्दिवर्धन (७) उम्बरदत्त (८) शौरिकदत्त (९) देवदत्ता और (१०) अजू।
७–'जइ णं, भंते! समणेणं आइगरेणं तित्थयरेणं जाव संपत्तेणं दुहविवागाणं दस अज्झयणा पन्नत्ता; तं जहा—मियापुत्ते य जाव अंजू य, पढमस्स णं भंते! अज्झयणस्स दुहविवागाणं समणेणं जाव संपत्तेणं के अढे पन्नत्ते ?'
तए णं से सुहम्मे जंबु अणगारं एवं वयासी—एवं खलु जम्बू! तेणं कालेणं तेणं समएणं मियग्गामे नामं नयरे होत्था। वण्णओ। तस्स णं मियग्गामस्स नयरस्स बहिया उत्तरपुरस्थिमे दिसीभाए चंदणपायवे नामं उज्जाणे होत्था सव्वोउय० । वण्णओ। तत्थ णं सुहम्मस्स जक्खस्स जक्खाययणे होत्था, चिराइए जहा पुण्णभद्दे।'
७–अहो भगवन् ! यदि धर्म की आदि करने वाले, तीर्थप्रवर्तक मोक्ष को समुपलब्ध श्रमण भगवान महावीर स्वामी ने दुखविपाक के मुगापुत्र से लेकर अञ्जू पर्यन्त दश अध्ययन कहे हैं तो मुक्तिप्राप्त श्रमण भगवान् महावीर ने, प्रभो ! दुखविपाक के प्रथम अध्ययन का क्या अर्थ कहा है?
इसके उत्तर में आर्य सुधर्मा स्वामी अपने (सुशिष्य) श्री जम्बू अनगार को कहते हैं—हे जम्बू! उस काल उस समय में मृगाग्राम नाम का एक नगर था जिसका वर्णन औपपातिकसूत्र में किये गये नगरवर्णन के ही समान जान लेना चाहिए। उस मृगाग्राम संज्ञक नगर के बाहर उत्तर-पूर्व दिशा के मध्य अर्थात् ईशान कोण में सब ऋतुओं में होने वाले फल पुष्प आदि से युक्त चन्दन-पादप नामक एक उपवन था। इसका भी वर्णन औपपातिकसूत्र से समझ लेना चाहिए। उस उद्यान में सुधर्मा नामक यक्ष का एक पुरातन यक्षायतन था जिसका वर्णन पूर्णभद्र यक्षायतन की तरह समझना। जन्मांध मृगापुत्र
८–तत्थ णं मियग्गामे नयरे विजए नाम खत्तिए राया परिवसइ, वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स मिया नामं देवी होत्था। अहीण....।वण्णओ। तस्स णं विजयस्स खत्तियस्स
प्रस्तुत आगम में प्राय: चार स्थानों पर 'वण्णओ' पद का प्रयोग प्राप्त होता है—प्रथम नगर के साथ, दूसरा उद्यान के साथ, तीसरा विजय राजा और चौथा रानी मृगावती के साथ। जैनागमों की अपनी एक पारम्परिक प्रणालिका ही है कि यदि किसी एक आगम में किसी उद्यान, नगर, चैत्य, राजा, रानी, संयमशील साधु का सांगोपांग वर्णन कर दिया हो, प्रसंगवश उस वर्णन को पुनः नहीं दुहराते हुए निर्दिष्ट आगम से उसका वर्णन जान लेने के लिये 'वण्णओ' ऐसा सांकेतिक शब्द निर्दिष्ट किया जाता है। अतः जहाँ कहीं वण्णओ शब्द का संकेत हो वहाँ औपपातिकसूत्र में वर्णित नगर, उद्यान, यक्ष, यक्षायतन, राजा व रानी के वर्णन की तरह समझ लेना चाहिए।