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[ विपाकसूत्र - प्रथम श्रुतस्कन्ध
अम्हे वि समणं भगवं जाव पज्जुवासामो ।' तए णं जाइअन्धे पुरिसे तेणं पुरओदंडएणं पुरिसेणं पगड्डिज्जमाणे पगड्डिज्जमाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागए, उवागच्छित्ता तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमंसित्ता जाव पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे विजयस्स खत्तियस्स तीसे य धम्ममाइक्खड़, जाव परिसा पडिगया, विजए वि गए ।
११ —तदनन्तर वह जन्मान्ध पुरुष नगर के कोलाहलमय वातावरण को जानकर उस पुरुष के प्रति इस प्रकार बोला—हे देवानुप्रिय ! क्या आज मृगाम्राम नगर में इन्द्र - महोत्सव है [ स्कन्द-महोत्सव है, उद्यान की या पर्वत की यात्रा है, जिसके कारण ये उग्रवंशी तथा भोगवंशी आदि एक ही दिशा में एक ही ओर] नगर के बाहर जा रहे हैं ? (यह सुन ) उस पुरुष ने जन्मान्ध से कहा— 'हे देवानुप्रिय ! आज इस ग्राम (नगर) में इन्द्रमहोत्सव नहीं है किन्तु (इस मृगाग्रामनगर के बाहर चन्दन - पादप उद्यान में ) श्रमण भगवान् महावीर स्वामी पधारे हैं; वहाँ ये सब दर्शनार्थ जा रहे हैं। तब उस जन्मान्ध पुरुष ने कहा- ' 'चलो, हम भी चलें और चलकर भगवान् की पर्युपासना करें। तदनन्तर दण्ड के द्वारा आगे को ले जाया जाता हुआ वह जन्मान्ध पुरुष, जहाँ पर श्रमण भगवान् महावीर स्वामी विराजमान थे वहाँ पर आ गया । वहाँ आकर वह तीन बार दक्षिण ओर से आरम्भ करके प्रदक्षिणा (आवर्तन ) ' करता है। प्रदक्षिणा करके वंदननमस्कार करता है । वन्दना तथा नमस्कार करके भगवान् की पर्युपासना ——– सेवा भक्ति में तत्पर हुआ । तदनन्तर श्रमण भगवान् महावीर ने विजय राजा तथा नगर जनता को धर्मोपदेश दिया। यावत् कथा सुनकर विजय राजा तथा परिषद् यथास्थान चले गये ।
मृगापुत्र के विषय में गौतम की जिज्ञासा
१२ – तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्ठे अंतेवासी इन्दभूई नामं अणगारे जाव विहरइ । तए णं से भगवं गोयमे तं जाइअन्धपुरिसं पासइ, पासित्ता जायसड्ढे जाव एवं वयासी—' अत्थि णं भंते! केई पुरिसे जाइअन्धे जाइअन्धारूवे ? '
हंता अस्थि ।
'कह णं भंते! से पुरिसे जाइअन्धे जाइअन्धरूवे ?'
‘एवं खलु, गोयमा! इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स पुत्ते मियादेवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारएं जाइअन्धे जाइअन्धरूवे । नत्थि णं तस्स दारगस्स जाव आगिइमित्ते । तए णं सा मियादेवी जाव पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ । '
तए णं से भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ, नमंसइ, वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी— 'इच्छामि णं भंते! तुब्भेहिं अब्भणुन्नाए समाणे मियापुत्तं दारगं पासित्तए । '
'अहासुहं देवाणुप्पिया!'
१२—उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर स्वामी के प्रधान शिष्य इन्द्रभूति नाम के अनगार भी वहाँ विराजमान थे । भगवान् गौतम स्वामी ( इन्द्रभूति अनगार) ने उस जन्मान्ध पुरुष को