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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध रखने की पेटी या थैली) को हाथ में लेकर अपने घरों से निकलते हैं और निकलकर विजयवर्द्धमान नामक खेट के मध्यभाग से जाते हुए जहाँ एकादि प्रान्ताधिपति का घर था, वहाँ पर आते हैं। आकर एकादि राष्ट्रकूट के शरीर का संस्पर्श करते हैं, संस्पर्श करके निदान (रोगों के मूल कारण) की पृच्छा करते हैं और पूछकर के एकादि रष्ट्रकूट के इन सोलह रोगातंकों में से किसी एक रोगातंक को शान्त करने के लिए अनेक प्रकार के अभ्यंगन (मालिश), उद्वर्तन (उवटन-बरणा वगैरह मलने) स्नेहपान (घृतादि स्निग्ध पदार्थों के पान कराने), वमन (उल्टी कराने), विरेचन (जलाब अथवा अधोद्वार से मल को निकालने स्वेदन (पसीने). अवदन (गर्म लोहे के कोश आदि से चर्म पर दागने). अवस्नान (चिकनाहट दूर करने के लिए अनेक-विध द्रव्यों से संस्कारित जल से स्नान कराने), अनुवासन (गुदा द्वारा पेट में तैलादि के प्रवेश कराने), निरूह (औषधियों को डालकर पकाये गए तैल के प्रयोग-विरेचन विशेष), वस्तिकर्म (गुदा में बत्ती आदि के प्रक्षेप करने), शिरावेध (नाड़ी के वेधन करने), तक्षण (क्षुरा, चाकू आदि सामान्य शस्त्रों द्वारा कर्तन-काटना),प्रतक्षण (विशेष रूप से कर्तन-बारीक शस्त्रों से त्वचा विदारण करने) शिरोवस्ति (सिर में चर्म कोश बाँधकर उसमें औषधि-द्रव्य-संस्कृत तैलादि को पूर्ण करानेभराने) तर्पण (स्निग्ध पदार्थों से शरीर को वृहंण-- तृप्त करने) पुटपाक- (अमुक रस का पुट देकर पकाई हुई औषध) छल्ली (छाल) मूलकन्द (मूली, गाजर, आलू आदि जमीकन्द) शिलिका (चिरायता आदि औषध) गुटिका - अनेक द्रव्यों को महीन पीसकर औषध के रस की भावना आदि से बनाई गई गोलियां) औषध (एक द्रव्यनिर्मित दवा) और भेषज्य (अनेक-द्रव्य संयोजित दवा) आदि के प्रयोग से प्रयत्न करते हैं अर्थात् – इन पूर्वोक्त साधनों का रोगोपशान्ति के लिए उपयोग करते हैं परन्तु उपर्युक्त अनेक प्रकार के प्रयोगात्मक उपचारों से वे इन सोलह रोगों में से किसी एक रोग को भी उपशान्त करने में समर्थ न हो सके! तब वे वैद्यपुत्रादि श्रान्त (शारीरिक खेद) तान्त (मानसिक खेद) तथा परितान्त (शारीरिक व मानसिक खेद) से खेदित हुए जिधर से आये थे उधर ही चल दिए। इक्काई की मृत्यु : मृगापुत्र का वर्तमान भव
२४–तए णं इक्काई रट्ठकूडे वेज्ज-पडियाइक्खिए परियारगपरिच्चत्ते निविण्णोसहभेसज्जे सोलहरोगायंकेहिं अभिभूए समाणे रज्जे य रट्टे य जाव (कोसे य कोट्ठागारे य बले य वाहणे य पुरे य) अन्तउरे य मुच्छिए रज्जं च रटं च आसाएमाणे पत्थेमाणे पीहमाणे अभिलसमाणे अट्ठदुहट्ठवसट्टे अड्डाइजाइं वाससयाइं परमाउयं पालइत्ता कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमट्ठिइएसु नेरइएसु नेरइयत्ताए उववने। से णं तओ अणंतरं उव्वट्टित्ता इहेव मियग्गामे नयरे विजयस्स खत्तियस्स मियाए देवीए कुच्छिसि पुत्तत्ताए उववन्ने। ... २४– इस प्रकार वैद्यों के द्वारा प्रत्याख्यात होकर (अर्थात् इन रोगों का प्रतीकार और उपचार हमसे सम्भव नहीं है, इस तरह कहे जाने पर) सेवकों द्वारा परित्यक्त होकर औषध और भैषज्य से निर्विण्ण (उदासीन) विरक्त-उपरत, सोलह रोगातंकों से परेशान, राज्य, राष्ट्र-देश, यावत् (कोष, भंडार, बल, वाहन, पुर तथा)
अन्तःपुर-रणवास में मूर्छित-आसक्त एवं राज्य व राष्ट्र का आस्वादन प्रार्थना स्पृहा-इच्छा और अभिलाषा करता हुआ वह एकादि प्रान्तपति आर्त - मनोव्यथा से व्यथित, दुखार्त – शारीरिक पीड़ा से पीड़ित और वशात - इन्द्रियाधीन होने से परतन्त्र– स्वाधीनता रहित जीवन व्यतीत करके २५० वर्ष की सम्पूर्ण आयु को भोगकर