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प्रथम अध्ययन ]
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यथासमय काल करके इस रत्नप्रभा पृथिवी - प्रथम नरक में उत्कृष्ट एक सागरोपम की स्थिति वाले नारकों में नारकरूप से उत्पन्न हुआ। तदनन्तर वह एकादि का जीव भवस्थिति संपूर्ण होने पर नरक से निकलते ही इस मृगाग्राम नगर में विजय क्षत्रिय की मृगादेवी नाम की रानी की कुक्षि में पुत्ररूप में उत्पन्न हुआ ।
२५ - तए णं तीसे मियादेवीए सरीरे वेयणा पाउब्भूया, उज्जला जाव दुरहियासा । जप्पभिड़ं चणं मियापुत्ते दारए मियाए देवीए कुच्छिसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभिदं च णं मियादेवी विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा अकंता अप्पिया अमणुन्ना अमणामा जाया यावि होत्था ।
२५ – मृगादेवी के उदर में उत्पन्न होने पर मृगादेवी के शरीर में उज्ज्वल यावत् ज्वलन्त - उत्कट व जाज्वल्यमान वेदना उत्पन्न हुई – तीव्रतर वेदना का प्रादुर्भाव हुआ। जिस दिन से मृगापुत्र बालक मृगादेवी के उदर में गर्भरूप से उत्पन्न हुआ, तबसे लेकर वह मृगादेवी विजय नामक क्षत्रिय को अनिष्ट, अमनोहर, अप्रिय, अमनोज्ञ - असुन्दर-मन को न भाने वाली- - मन से उतरी हुई, अप्रिय हो गयी ।
२६- - तए णं तीसे मियाए देवीए अन्नया कयाइ पुव्वरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुंबजागरियाए जागराणीए इमे यारूवे अज्झत्थिए जाव' समुप्पज्जित्था - "एवं खलु अहं विजयस्स खतियस्स पुव्वि इट्ठा कंता पिया मणुण्णा मणामा धेज्जा विसासिया अणुमया आसी । जप्पभिदं च णं मम इमे गब्भे कुच्छिसि गब्भत्ताए उववन्ने, तप्पभिदं च णं अहं विजयस्स खत्तियस्स अणिट्ठा जाव अमणामा जाया यावि होत्था । नेच्छइ णं विजए खत्तिए मम नामं व गोयं वा गिण्हित्तए वा, किमंगपुण दंसणं वा परिभोगं वा। तं सेयं खलु ममं एवं गब्धं बहूहिं गब्भसाडणाहि य पाडणाहि य गालणाहि य मारणाहि य साडित्तए वा पाडित्तए वा गालित्तए वा मारित्तए वा एवं संपेहेइ, संपेहित्ता बहूणि खाराणि य कडुयाणि य तवूराणि य गभसाडणाणि यखायमाणी य पीयमाणी य इच्छइ तं गब्धं साडित्तए-४ नो चेव णं से गब्भे सडड़ वा४ । तणं सा मियादेवी जाहे नो संचाएइ तं गब्धं साडित्तए वा ४ ताहे संता तां परितंता अकामिया असयंवसा तं गब्धं दुहं-दुहेणं परिवहइ ।
२६ – तदनन्तर किसी काल में मध्यरात्रि के समय कुटुम्बचिन्ता से जागती हुई उस मृगादेवी के हृदय में यह अध्यवसाय- विचार उत्पन्न हुआ कि मैं पहले तो विजय क्षत्रिय को इष्ट, कान्त, प्रिय, मनोज्ञ और अत्यन्त मनगमती, ध्येय, चिन्तनीय, विश्वसनीय व सम्माननीय थी परन्तु जबसे मेरी कुक्षि में यह गर्भस्थ जीव गर्भ के रूप में उत्पन्न हुआ तब से विजय क्षत्रिय को मैं अप्रिय यावत् मन से अग्राह्य हो गई हूँ। इस समय विजय क्षत्रिय मेरे नाम तथा गोत्र को ग्रहण करना -: - अरे स्मरण करना भी नहीं चाहते, तो फिर दर्शन व परिभोग भोगविलास की तो बात ही क्या है ? अतः मेरे लिये यही श्रेयस्कर है कि मैं इस गर्भ को अनेक प्रकार की शातना (गर्भ को खण्ड-खण्ड कर गिरा देने वाले प्रयोग ) पातना ( अखण्ड रूप से गर्भ को गिराने रूप क्रियाओं से) गालना (गर्भ को द्रवीभूत करके गिराने रूप उपायों से) व मारणा ( मारने वाले प्रयोग) से नष्ट कर दूँ । इस प्रकार वह शातना, पातना, गालना और मारणा के लिये विचार करती है और विचार करके गर्भपात के लिये गर्भ को गिरा देने वाली क्षारयुक्त (खारी), कड़वी, कसैली, औषधियों का भक्षण तथा पान करती हुई उस गर्भ के शांतन, पातन, गालन व मारण करने की इच्छा करती है । परन्तु वह गर्भ उपर्युक्त सभी उपायों से भी शातन, पातन, गालन व मारण रूप नाश को प्राप्त नहीं हुआ। तब वह मृगादेवी शरीर से श्रान्त, मन से दुःखित तथा शरीर और मन से खिन्न होती हुई इच्छा न रहते भी विवशता के कारण अत्यन्त दु:ख के साथ गर्भ वहन करने लगी। १. देखिए सूत्र १ । १ । १९
हुए