________________
प्रथम अध्ययन ]
[११
पुत्ते मिया देवीए अत्तए मियापुत्ते नामं दारए होत्था । जाइ - अन्धे, जाइ-मूए, जाइ-बहिरे, जाइपं, हुंडे य वायवे य । नत्थि णं तस्स दारगस्स हत्था वा पाया वा कण्णा वा अच्छी वा णासा वा । केवलं से तेसिं अंगोवंगाणं आगिई आगिइमित्ते । तए णं सा मियादेवी तं मियापुत्तं दारगं रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणी पडिजागरमाणी विहरइ ।
८— उस मृगाग्राम नामक नगर में विजय नाम का एक क्षत्रिय राजा निवास करता था । उस विजय नामक क्षत्रिय राजा की मृगा नामक रानी थी। उस सर्वांगसुन्दरी रानी का रूप लावण्य औपपातिकसूत्र में किये गये राज्ञीवर्णन के ही समान जान लेना। उस विजय क्षत्रिय का पुत्र और मृगा देवी का आत्मज मृगापुत्र नाम का एक बालक था । वह बालक जन्म के समय से ही अन्धा, गूंगा, बहरा, लूला, हुण्ड था (उसके शरीर के सभी अवयव बिना ढंग के बेढब थे) वह वातरोग से पीड़ित था । उसके हाथ, पैर, कान, . आँख और नाक भी न थे। इन अंगोपांगों का केवल आकार ही था और वह आकार - चिह्न भी नाम मात्र का ( उचित स्वरूपवाला नहीं ) था । वह मृगादेवी गुप्त भूमिगृह ( मकान के नीचे के तलघर ) में गुप्तरूप से आहारादि के द्वारा उस बालक का पालन-पोषण करती हुई जीवन बिता रही थी ।
९ – तत्थ णं मियग्गामे नयरे एके जाइअन्धे पुरिसे परिवसेइ । से णं एगेणं सचक्खुएणं पुरिसेणं पुरओ दण्डएणं पगड्डिज्जमाणे पगड्डिज्जमाणे फुट्टहडाहडसीसे मच्छियाचडगरपहकरेणं अन्निज्जमाणमग्गे मियग्गामे नयरे गिहे गिहे कालुणवडियाए वित्तिं कप्पेमाणे विहरइ ।
९ – उस मृगाग्राम में एक जन्मान्ध पुरुष रहता था । आँखों वाला एक व्यक्ति उसकी लकड़ी पकड़े रहा करता था । उसी की सहायता से वह चला करता था। उसके मस्तक के बाल बिखरे हुए अत्यन्त अस्त-व्यस्त थे। (अत्यन्त मैला - कुचेला होने के कारण) उसके पीछे मक्खियों के झुण्ड के झुण्ड भिनभिनाते रहते थे। ऐसा वह जन्मान्ध पुरुष मृगाग्राम नगर के घर-घर में कारुण्यमय- दैन्यमय भिक्षावृत्ति से अपनी आजीविका चला रहा था ।
१० - तेणं कालेणं तेणं समएणं समणे भगवं महावीरे जाव समोसरिए । जाव परिसा निग्गया। तए णं से विजए खत्तिए इमीसे कहाए लद्धट्ठे समाणे, जहा कूणिए तहा निग्गए जाव पज्जुवासइ
१० – उस काल तथा उस समय में श्रमण भगवान् महावीर (नगर के बारह चन्दन- पादप उद्यान में) पधारे। उनके पर्दापण के समाचारों को जानते ही जनता उनके दर्शनार्थ निकली । तदनन्तर विजय नामक क्षत्रिय राजा भी महाराज कूणिक की तरह भगवान् के शुभागमन के वृत्तान्त को जानकर दर्शनार्थ नगर से चला यावत् समवसरण में जाकर भगवान् की पर्युपासना— सेवा - भक्ति करने लगा ।
११ – ए णं से जाइअन्धे पुरिसे तं महया जणसद्दं जाव सुणेत्ता तं पुरिसं एवं वयासी—' किं देवाप्पा! अज्ज मियग्गामे नयरे इन्दमहे इ वा जाव (खंदमहे इ वा उज्जाण - गिरिजत्ता इ वा जओ णं बहवे उग्गा भोगा एगदिसिं एगाभिमुहा) निग्गच्छंति तए णं से पुरिसे जाइअन्धपुरिसं एवं वयासी— 'नो खलु, देवाणुप्पिया ! इन्दमहे इ वा जाव निग्गच्छइ । समणे जाव विहरइ । तए णं एए जाव निग्गच्छंति' तए णं से जाइअंधपुरिसे तं पुरिसं एवं वयासी— 'गच्छामो णं देवाणुप्पिया !