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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध इसके उत्तर में भगवान् गौतम स्वामी ने कहा—'हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे पुत्र को देखने आया हूँ !'
तब मृगादेवी ने मृगापुत्र के पश्चात् उत्पन्न हुए चार पुत्रों को वस्त्र-भूषणादि से अलंकृत किया और अलंकृत करके गौतमस्वामी के चरणों में डाला (नमस्कार कराया) और डाल करके (नमस्कार कराने के पश्चात्) इस प्रकार कहा—'भगवन् ! ये मेरे पुत्र हैं; इन्हें आप देख लीजिए!'
१५–तए णं से भगवं गोयमे मियादेवि एवं वयासी—'नो खलु देवाणुप्पिए! अहं एए तव पुत्ते पासिउं हव्वमागए। तत्थ णं जे से तव जेटे मियापुत्ते दारए जाइअन्धे जाइअन्धरूवे, जंणं तुम रहस्सियंसि भूमिघरंसि रहस्सिएणं भत्तपाणेणं पडिजागरमाणाी पडिजागरमाणी विहरसि तं णं अहं पासिउं हव्वमागए।'
तए णं सा मियादेवी भगवं गोयम एवं वयासी–से के णं गोयमा! ते तहारूवे नाणी वा तवस्सी वा, जेणं तव एसमढे मम ताव रहस्सीकए तुब्भं हव्वमक्खाए, जओ णं तुब्भे जाणह ?'
तएणं भगवं गोयमे मियादेविं एवं वयासी—एवं खलु देवाणुप्पिए! समणे भगवं महावीरे, तओ णं अहं जाणामि।'
१५—यह सुनकर भगवान् गौतम मृगादेवी से बोले—'हे देवानुप्रिये ! मैं तुम्हारे इन पुत्रों को देखने के लिए यहाँ नहीं आया हूँ, किन्तु तुम्हारा जो ज्येष्ठ पुत्र मृगापुत्र है, जो जन्मान्ध व जन्मान्धरूप है तथा जिसको तुमने एकान्त भूमिगृह (भौरे) में गुप्तरूप से सावधानीपूर्वक रक्खा है और छिपे-छिपे खानपान आदि के द्वारा जिसके पालन-पोषण में सावधान रह रही हो, उसी के देखने मैं यहाँ आया हूँ।'
यह सुनकर मृगादेवी ने गौतम से (आश्चर्यचकित होकर) निवेदन किया कि हे गौतम! वे कौन तथारूप ऐसे ज्ञानी व तपस्वी है, जिन्होंने मेरे द्वारा एकान्त गुप्त रक्खी यह बात आपको यथार्थरूप में बता दी। जिससे आपने यह गुप्त रहस्य सरलता से जान लिया ?
तब भगवान् गौतम स्वामी ने कहा हे भद्रे ! मेरे धर्माचार्य श्रमण भगवान् महावीर स्वामी हैं और प्रभु महावीर स्वामी ने मुझे यह रहस्य बताया है।
१६–जाव च णं मियादेवी भगवया गोयमेण सद्धिं एयमटुं संलवइ, तावं च णं मियापुत्तस्स दारगस्स भत्तवेला जाया यावि होत्था। तए णं सा मियादेवी भगवं गोयमं एवं वयासी—'तुब्भेणं भंते! इहं चेव चिट्ठह जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि त्ति कटु जेणेव भत्त-पाणघरे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता वत्थपरियट्टयं करेइ, करेत्ता कट्ठसगडियं गिण्हइ, गिण्हित्ता विउलस्स असण-पाण-खाइम-साइमस्स भरे, भरित्ता तं कट्ठसगडियं अणुकड्डमाणी अणुकड्डमाणी जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छइ, उवागच्छित्ता भगवं गोयमं एवं वयासी 'एह णं तुब्भे भंते मम अणुगच्छह, जा णं अहं तुब्भं मियापुत्तं दारगं उवदंसेमि। तए णं से भगवं गोयमे मियादेविं पिट्ठओ समणुगच्छइ।
१६—जिस समय मृगादेवी भगवान् गौतमस्वामी के साथ संलाप-संभाषण-वार्तालाप कर रही थी उसी समय मृगापुत्र दारक के भोजन का समय हो गया। तब मृगादेवी ने भगवान् गौतमस्वामी से निवेदन किया- भगवन् ! आप यहीं ठहरिये, मैं अभी मृगापुत्र बालक को दिखलाती हूँ।' इतना कहकर