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[विपाकसूत्र-प्रथम श्रुतस्कन्ध में अवधारण कर जिस ओर से आयी थी उसी ओर (यथास्थान) चली गई।
__३ तेणं कालेणं तेणं समएणं अज्जसुहम्मस्स अन्तेवासी अन्जजंबू नामं अणगारे सत्तुस्सेहे, जहा गोयमसामी तहा, जाव (समचउरंससंठाणसंठिए, वज्जरिसहनारायसंघयणे, कणगपुलगणिघसपम्हगोरे, उग्तवे, दित्ततवे, तत्ततवे, महातवे, ओराले, घोरे, घोरगुणे, घोरतवस्सी, घोरबंभचेरवासी, उच्छूढसरीरे , संखित्तविउलतेउलेस्से, चोद्दसपुव्वी, चउणाणोवगए, सव्वक्खरसन्निवाई समणस्स भगवओ सुहम्मस्स अदूरसामन्ते उड्ढजाणु अहोसिरे झाणकोट्ठोवगए संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे ) विहरड्। .
तए णं अजजंबू नामं अणगारे जायसड्डे(जायसंसए, जायकोउहल्ले, उप्पन्नसड्डे उप्पन्नसंसए, उप्पन्नकोउहल्ले,संजायसड्डे संजायसंसए, संजायकोउहल्ले, समुप्पन्नसड्डे समुप्पन्नसंसए, समुप्पन्न कोउहल्ले, उट्ठाए उढेइ, उट्ठाए उद्वेत्ता) जेणेव अन्जसुहम्मे अणगारे तेणेव उवागए, तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ, करेत्ता वंदइ नमसइ, वंदित्ता, नमंमित्ता (अज्जसुहम्मस्स थेरस्स णच्चासण्णे नातिदूरे सुस्सूसमाणे णमंसमाणे अभिमुहं पंजलिउडे विणएणं ) जाव पन्जुवासइ, पन्जुवासित्ता एवं वयासी
३-उस काल उस समय में आर्य सुधर्मा स्वामी के शिष्य जम्बू स्वामी थे, जो सात हाथ प्रमाण शरीर वाले तथा गौतम स्वामी के समान थे। (श्री गौतम स्वामी का वर्णन भगवती सूत्र में वर्णित है।) तदनुसार पालथी मारकर बेठने पर जिनके शरीर की ऊँचाई और चौड़ाई बराबर हो ऐसे समचतुरस्र संस्थान वाले हैं, जो वज्रऋषभनाराचसंहनन के (हड्डियों की रचना की दृष्टि से सर्वोत्तम सुदृढ़ व सबल अस्थिबंधन के) धारक हैं, जो सोने कीरेखा के समान और पद्म-पराग, (कमल-रज) के समान वर्ण वाले हैं, जो उग्र. (साधारण मनुष्य जिसकी कल्पना भी नहीं कर सकता ऐसे) तप करने वाले हैं, दीप्त तपस्वी (कर्मरूपी वन को भस्म करने में समर्थ तप करने वाले), तप्त-तपस्वी (जिस तप से कर्मों को सन्ताप हो—कर्म नष्ट हो जाएं—ऐसे कठोर तप को करने वाले), महातपस्वी (किसी तरह की आकांक्षा-अभीप्सा रक्खे बिना निष्काम भाव से किये जाने वाले महान् तप को करने वाले) हैं, जो उदार हैं, आत्म-शत्रुओं को नष्ट करने में निर्भीक हैं, जो दूसरों के द्वारा दुष्प्राप्य गुणों को धारण करने वाले हैं, जो घोर तप के अनुष्ठान के कारण तपस्वी पद से अलंकृत हैं, जो शरीर में ममत्व वृत्ति से रहित हैं,जो अनेक योजन-प्रमाण क्षेत्राश्रित वस्तुओं के दहन में समर्थ विस्तीर्ण तेजोलेश्या को–तपोजन्य विशिष्ट लब्धि-विशेष को संक्षिप्त किये हुए हैं, जो चौदह पूर्वो के ज्ञाता हैं, जो चार ज्ञान के धारक हैं, जिन्हें सम्पूर्ण अक्षरसंयोग का ज्ञान है, जिन्होंने उत्कुटुक आसन लगा रखा है, जो अधोमुख हैं तथा धर्मध्यान रूप कोष्ठक में प्रवेश किये हुए, भगवान् सुधर्मा स्वामी के पास संयम और तप से आत्मा को भावित करते हुए विचरते हैं) ऐसे आचार को धारण करने वाले यावत् ध्यान रूप कोष्ठ को प्राप्त हुए आर्य जम्बू नामक अनगार विराजमान हो रहे हैं। तदनन्तर जातश्रद्ध (अर्थात् तत्त्व को जानने की इच्छा में जिनकी प्रवृत्ति हो) जातसंशय (इच्छा में प्रवृत्ति होनेका कारण संशय है, क्योंकि संशय होने से ही जानने की इच्छा होती है) जात-कुतूहल—(कुतूहल-उत्सुकता अर्थात् श्री सुधर्मास्वामी से प्रश्न करने पर उनसे अपूर्व वस्तु-तत्त्व की समझ प्राप्त होगी इत्यादि) उत्पन्नश्रद्ध, उत्पन्नसंशय, उत्पन्नकुतूहल, संजातश्रद्ध, संजातसंशय, संजातकुतूहल, समुत्पन्नश्रद्ध, समुत्पन्नसंशय,