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का अर्थ है एक कर्म का दूसरे में मिल जाना। योगदर्शन की इन त्रिविध अवस्थाओं की तुलना क्रमशः निकाचित, प्रदेशोदय और संक्रमण के साथ की जाती है। कर्म और पुनर्जन्म
पुनर्जन्म का अर्थ है—वर्तमान जीवन के पश्चात् का परलोक जीवन। परलोक जीव किस जीव का कैसा होता है इसका मुख्य आधार उसका पूर्वकृत कर्म है। जीव अपने ही प्रमाद से भिन्न-भिन्न जन्मान्तर करते हैं।१४१ पुनर्जन्म कर्मसंगी जवीं के होता है।४२ अतीत कर्मों का फल हमारा वर्तमान जीवन है ओर वर्तमान कर्मों का फल हमारा भावी जीवन है। कर्म और पुनर्जन्म काअविच्छेद्य सम्बन्ध है।
आयुष्य-कर्म के पुद्गल-परमाणु जीव में देव, नारक आदि अवस्थाओं में गति की शक्ति उत्पन्न करते हैं ।१४३ इसी से जीव. नए जन्म-स्थान में (अमुक आयु में) उत्पन्न होता है।
भगवान् महावीर ने कहा क्रोध, मान, माया और लोभ—ये पुनर्जन्म के मूल को पोषण करने वाले हैं।१४४ गीता में कहा गया है—जैसे फटे हुए कपड़े को छोड़कर मनुष्य नया कपड़ा पहनता है वैसे ही पुराने शरीर को छोड़कर प्राणी मृत्यु के पश्चात् नये शरीर को धारण करता है।४५ यह आवर्तन प्रवृत्ति से होता है।४६ तथागत बुद्ध ने अपने पैर में चुभने वाले तीक्ष्ण काँटे को पूर्वजन्म मे किये हुए प्राणी-वध का विपाक कहा है।१४७
नवजात शिशु के हर्ष, भय, शोक आदि होते हैं। उसका मूल कारण पूर्वज्म की स्मृति है।४८ जन्म लेते ही.बच्चा मां का स्तन-पान करने लगता है, यह पूर्वजन्म में किये हुए आहार के अभ्यास से ही होता है।४९ जैसे एक युवक का शरीर बालक-शरीर की उत्तरवर्ती अवस्था है वैसे ही बालक का शरीर पूर्वज्म के बाद में होने वाली अवस्था है ।१५० नवोत्पन्न शिशु में जो सुख-दुःख का अनुभव होता है वह भी पूर्व अनुभवयुक्त होता है। जीवन के प्रति मोह और मृत्यु के प्रति भय है, वह भी पूर्वबद्ध संस्कारों का परिणाम है। यदि पहले के जन्म में उसका अनुभव नहीं होता तो सद्योजात प्राणी में ऐसी वृत्तियाँ प्राप्त नहीं हो सकती थीं। इस प्रकार अनेक युक्तियाँ देकर भारतीय चिन्तकों ने पुनर्जन्म सिद्ध किया है।
कर्म की सत्ता स्वीकार करने पर उसके फल रूप परलोक या पुनर्जन्म की सत्ता भी स्वीकार करनी पडती है। जिन कर्मों का फल वर्तमान भव में प्राप्त नहीं होता उन कर्मों के भोग के लिए पुनर्जन्म मानना आवश्यक है।
१४१. आचारांग १२। ६ १४२. भगवती २।५ १४३. स्थानाङ्ग ९४० १४४. दशवैकालिक ८। ३९ १४५. श्रीमद् भगवद् गीता २२२ १४५. श्रीमद् भगवद् गीता २२६ १४७. इत एकनवतिकल्पे शक्त्या मे परुषो हतः।
तेन कर्मविपाकेन पादे विद्वोऽस्मि भिक्षवः॥ १४८. न्यायसूत्र ३।१।१२ १४९. न्यायसूत्र ३।१।१२ १५०. विशेषावश्यक भाष्य
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