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उठा हुआऔर भरे हुए घड़े की तरह स्थित । अब यदि कोई पुरुष उस हृद में एक बड़ी, सौ छेदें वाली नाव छोड़े तो हे गौतम! वह नाव उन आस्रव - द्वारों— छिद्रों द्वारा भरती भरती जल से पूर्ण, ऊपर तक भरी हुई, बढ़ते जल से ढकी हुई होकर, भरे घड़े की तरह होगी या नहीं?
हाँ भगवन्! होगी।
हे गौतम! इसी हेतु से मैं कहता हूँ कि जीव और पुद्गल परस्पर बद्ध, स्पृष्ट, अवगाढ और प्रतिबद्ध है और परस्परक एकमेक होकर रहते हैं । १२६
यही आत्म-प्रदेशों और कर्म - पुद्गलों का सम्बन्ध प्रदेशबंध है।
प्रकृतिबन्ध
योगों की प्रवृत्ति द्वारा ग्रहण किये गये कर्म - परमाणु ज्ञान को आवृत करना, दर्शन को आच्छन्न करना, सुख, दुख का अनुभव करना आदि विभिन्न प्रकृतियों (स्वभावों) के रूप में परिणत होते हैं। आत्मा के साथ बद्ध होने से पूर्व कार्मणवर्गणा के पुद्गल एक रूप थे, बद्ध होने के साथ ही उसमें नाना प्रकार के स्वभाव उत्पन्न हो जाते हैं। इसे आगम की भाषा में प्रकृतिबन्ध कहते हैं।
प्रकृतिबन्ध और प्रदेशबन्ध ये दोनों योगों की प्रवृत्ति से होते हैं । १२७ केवल योगों की प्रवृत्ति से जो बंध होता है वह सूखी दीवार पर हवा के झोंके के साथ आने वाली रेती के समान है। ग्यारहवें, बारहवें और तेरहवें गुणस्थान में कषायाभाव के कारण कर्म का बंधन इसी प्रकार का होता है। कषायरहित प्रवृत्ति से होने वाला कर्मबन्ध निर्बल, अस्थायी ओर नाममात्र का होता है, इससे संसार नहीं बढ़ता।
योगों के साथ कषायकी जो प्रवृत्ति होती है उससे अमुक समय तक आत्मा सेपृथक् न होने की कालिक मर्यादा पुद्गलोंमें निर्मित होती है । यह कालमर्यादा ही आगम की भ्ज्ञाषा में स्थितबध है । दूसरे शब्दों में कहा जाये तो आत्म के द्वारा ग्रहण की गई ज्ञानावरणआदि कर्म-पुद्गलां की राशि कितने काल तक आत्म- प्रदेशों में रहेगी, उसकी मर्यादा स्थितिबंध है । १२८
अनुभागबन्ध
जीव के द्वारा ग्रहण की गई शुभाशुभ कर्मों की प्रकृतियों का तीव्र, मन्द आदि विपाक अनुभागबंध है। उदय में आने पर कर्म का अनुभ्ज्ञव तीव्र या मन्दकैसाहोगा, यह प्रकति आदि की तरह कर्मबंध के समय ही नियत हो जाता है । इसे अनुभागबंध कहते हैं । १२९
उदय में आने पर कर्म अपनी मूलप्रकृति के अनुसार ही फल प्रदान करते हैं। ज्ञानावरणीयकर्म अपने अनुभावफल देने की शक्ति के अनुसार ज्ञान का आच्छादन करता है। दर्शनावरणीय कर्म दर्शन को आवृत करता है। इसी प्रकार अन्य कर्म भी अपनी प्रकृति के अनुसार तीव्र या मन्द फल प्रदान करते हैं। उनकी मूलप्रकृति में उलट-फेर नहीं होता ।
भगवती १ । ६
(क) पंचम कर्मग्रन्थ गाथा ९६, (ख) स्थानाङ्ग २४ ।९६ की टीका
१२६.
१२७.
१२८. स्थिति: कालावधारणम्
१२९.
(क) भगवती १।४।४० वृत्ति,
(ख) तत्त्वार्थसूत्र ८।२२
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