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कर्म का कार्य
कर्म का मुख्य कार्य है-आत्मा को संसार में आबद्ध रखना। जब तक कर्म-बंध की परम्परा का प्रवाह प्रवहमान रहता है तब तक आत्मा मुक्त नहीं बन सकता। यह कर्म का सामान्य कार्य है। विशेष रूप से देखा जाये तो भिन्नभिन्न कर्मों के भिन्न-भिन्न कार्य हैं। जितने कर्म हैं उतने ही कार्य हैं।
आठ कर्म
जैन कर्मशास्त्र की दृष्टि से कर्म की आठ मूल प्रकृतियाँ हैं, जो प्राणी को विभिन्न प्रकार के अनुकूल और प्रतिकूल फल प्रदान करती हैं। उनके नाम ये हैं-(१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) वेदनीय (४) मोहनीय, (५) आयु, (६) नाम, (७) गोत्र और (८) अन्तराय।२२०
इन आठ कर्म-प्रकृतियों के भी दो अवान्तर भेद हैं। इनमें चार घाती हैं और चार अघाती हैं (१) ज्ञानावरण, (२) दर्शनावरण, (३) मोहनीय, (४) अन्तराय ये चार घाती हैं ।२२१ (१) वेदनीय, (२) आयु, (३) नाम, (४) गोत्रये अघाती हैं।२२२
जो कर्म आत्मा से बंधकर उसके स्वरूप का या उसके स्वाभाविक गुणों का घात करते हैं वे. घाती कर्म हहैं। इनकी अनुभाग-शक्ति का सीधा असर आत्मा के ज्ञान आदि गुणों पर होता है। इनसे गुणविकास अवरुद्ध होता है। जैसे बादल सूर्य के चमचमाते प्रकाश को आच्छादित कर देता है। उसकी रश्मियों को बाहर नहीं आने देता वैसे ही घाती कर्म आत्मा के मुख्य गुण (१) अनन्तज्ञान, (२) अनन्तदर्शन, (३) अनन्तसुख और (४) अनन्तवीर्य गुणों को प्रकट नहीं होने देता। ज्ञानदर्शनावरणीय कर्म आत्मा में अनन्त ज्ञान-दर्शन शक्ति के प्रादुर्भाव को रोकते हैं। मोहनीयकर्म आत्मा क सम्यक् श्रद्धा और सम्यक् चरित्र गुण का अवरोध करता है जिससे आत्मा को अनन्त सुख प्राप्त नहीं होता। अन्तरायकर्म आत्मा की अनन्तवीर्यशक्ति आदि का प्रतिघात करता है जिससे आत्मा अपनी अनन्त विराट शक्ति का विकास नहीं कर पाता। इस प्रकार घाती-कर्म आत्मा के विभिन्न गुणों का घात करते हैं।
जो कर्म आत्मा के निजगुण का घात नहीं कर केवल आत्मा के प्रतिजीवी गुणों का 'धात करता है वह अघाती कर्म है। अघाती कर्मों का सीधा सम्बन्ध पौद्गलिक द्रव्यों से होता है। इसकी अनुभाग शक्ति जीव के गुणों पर सीधा असर नहीं करती। अघाती कर्मों के उदय से आत्मा का पौद्गलिक द्रव्यों से सम्बन्ध जुड़ता है, जिससे आत्मा "अमूर्तोऽपि मूर्त इव" रहती है। उसे शरीर के कारागृह में बद्ध रहना पड़ता है। जो जीव के गुण (१) अव्याबाध सुख, (२) अटल अवगाह व (३) अमूर्तिकत्व और (४) अगुरुलघुभाव को प्रकट नहीं होने देता। वेदनीय कर्म आत्मा के अव्याबाध सुख को आच्छादित करता है। आयुष्कर्म आत्मा की अटल अवगाहना, शाश्वत स्थिरता को नहीं होने देता। नामकर्म आत्मा की अरूपी अवस्था को आवृत किये रहता है। गोत्र कर्म आत्मा के अगुरुलघुभाव को रोकता है। इस प्रकार अघाती कर्म अपना प्रभाव दिखाते हैं। जब घातीकर्म नष्ट हो जाते हैं तब आत्मा केवलज्ञान केवलदर्शन का धारक अरिहन्त बन जाता है और जब अघाती कर्म नष्ट हो जाते हैं तब विदेह सिद्ध बुद्ध और मुक्त हो जाता है।
आठों कर्मों की अवान्तर अनेक उत्तर प्रकृतियाँ हैं। विस्तार भय से हम उन सभी का यहाँ पर निरूपण नहीं कर रहे हैं। १२०. (क) उत्तराध्ययन ३३ । २-३ (ख) स्थानाङ्ग ८।३। ५७६ (ग) प्रज्ञापना २३ । १ (घ) भगवती ५।९ पृ.५४३ १२१. (क) पंचाध्यायी २।९९८ (ख) गोमटसार-कर्मकाण्ड ९ १२२. पंचाध्यायी २।९९९
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