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जैसे गणित करने वाली मशीन जड़ होने पर भी अंक गिनने में भूल नहीं करती वैसे ही कर्म भी जड़ होने पर भी फल देने में भूल नहीं करता। उसके लिए ईश्वर को नियंता मानने की आवश्यकता नहीं है। आखिर ईश्वर वही फल प्रदान करेगा जैसे जीव के कर्म होंगे, कर्म के विपरीत वह कुछ भी देने में समर्थ नहीं होगा। इस प्रकार एक ओर ईश्वर को सर्वशक्तिमान् मानना और दूसरी ओर उसे अणुमात्र भी परिवर्तन का अधिकार न देना वस्तुतः ईश्वर का उपहास है। इससे यह भी सिद्ध है कि कर्म की शक्ति ईश्वर से भी अधिक है और ईश्वर भी उसके अधीन ही कार्य करता है। दूसरी दृष्टि से कर्म में भी कुछ करने-धरने की शक्ति नहीं माननी होगी, क्योंकि वह ईश्वर के सहारे ही अपना फल दे सकता है। इस प्रकार दोनों एक दूसरे के अधीन हो जायेंगे। इससे तो यही तर्कसंगत है कि कर्म को ही अपना फल देने वाला स्वीकार किया जाय। इससे ईश्वर का ईश्वरत्व भी अक्षुण्ण रहेगा और कर्मवाद के सिद्धांत में भी किसी प्रकार की बाधा समुपस्थित नहीं होगी। जैन संस्कृति की चिन्तनधारा प्रस्तुत कथन का ही समर्थन करती
कर्म का संविभाग नहीं
वैदिकदर्शन का यह मन्तव्य है कि आत्मा सर्वशक्तिमान ईश्वर के हाथ की कठपुतली है। उसमें स्वयं कुछ भी कार्य करने की क्षमता नहीं है। स्वर्ग और नरक में भेजने वाला, सुख और दुःख को देने वाला ईश्वर है। ईश्वर की प्रेरणा से ही जीव स्वर्ग और नरक में जाता है।११४
जैन-दर्शन के कर्म सिद्धांत ने प्रस्तुत कथन का खण्डन करते हुए कहा है-ईश्वर किसी का उत्थान और पतन करने वाला नहीं है। वह तो वीतराग है। आत्मा ही अपना उत्थान और पतन करता है। जब आत्मा स्वभावदशा में रमण करता है तब उत्थान करता है और जब विभावदशा में रमण करता है तब उसका पतन होता है। विभावदशा में रमण करने वाला आत्मा ही वैतरणी नदी और कूटशाल्मली वृक्ष है और स्वभाव-दशा में रमण करने वाला आत्मा कामधेनु और नन्दनवन है।११५ यह आत्मा सुख और दुःख का कर्ता भोक्ता स्वयं ही है। शुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा अपना मित्र है और अशुभ मार्ग पर चलने वाला आत्मा स्वयं ही अपना शत्रु है ।१६
जैनदर्शन का यह स्पष्ट उद्घोष है कि जो भी सुख और दुःख प्राप्त हो रहा है। उसका निर्माता आत्मा स्वयं ही है। जैसा आत्मा कर्म करेगा वैसा ही उसे फल भोगना पड़ेगा।१७ वैदिक-दर्शन और बौद्धदर्शन की तरह वह कर्मफल के संविभाग में विश्वास नहीं करता। विश्वास ही नहीं अपितु उस विचारधारा का खण्डन भी करता है ।११८ एक व्यक्ति का कर्म दूसरे व्यक्ति में विभक्त नहीं किया जा सकता। यदि विभाग को स्वीकार किया जायेगा तो पुरुषार्थ और साधना का मूल्य ही क्या है? पाप-पुण्य करेगा और कोई और भोगेगा कोई और। अतः यह सिद्धांत युक्ति-युक्त नहीं है ।११९
११४. ११५.
११६. ११७.
महाभारत वनपर्व अ. ३, श्लोक २८ उत्तराध्ययन २०। ३६ उत्तराध्ययन २०। ३७ उत्तराध्ययन ४। ४ आत्ममीमांसा, पं. दलसुख मालवणिया पृ. १३१ द्वात्रिंशिका, आचार्य अमितगति ३०-३१
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११८. ११९.