________________
आत्मा को भी जब तक अपनी विराट् शक्ति का ज्ञान नहीं होता तब तक वह भी कर्मों को अपने से अधिक शक्तिमान् समझकर उनसे दबा रहता है, ज्ञान होने पर उनसे मुक्त हो जाता है। ईश्वर और कर्मवाद
जैनदर्शन का यह स्पष्ट मन्तव्य है कि जीव स्वयं जैसा कर्म करता है वैसा ही उसे फल प्राप्त होता है।११० न्यायदर्शन११ की तरह वह कर्मफल का नियन्ता ईश्वर को नहीं मानता। कर्मफल का नियमन करने के लिए ईश्वर की आवश्यकता नहीं है। कर्म-परमाणुओं में जीवात्मा के सम्बन्ध से एक विशिष्ट परिणाम समुत्पन्न होता है।२१२ जिससे वह द्रव्य, क्षेत्र, काल, भाव, भव, गति, स्थिति, प्रभृति उदय अनुकूल सामग्री से विपाक प्रदर्शन में समर्थ होकर आत्मा के संस्कारों को मलिन करता है। उससे उनका फलोपभोग होता है। अमृत और विष, पथ्य और अपथ्य भोजन में कुछ भी ज्ञान नहीं होता तथापि आत्मा का संयोग पाकर वे अपनी-अपनी प्रकृति के अनुकूल विपाक उत्पन्न करते हैं। वह बिना किसी प्रेरणा अथवा बिना ज्ञानक अपना कार्य करते ही हैं। अपना प्रभाव डालते ही हैं।२१३
कालोदायी अनगार ने भगवान् श्री महावीर से प्रश्न किया—भगवन् !क्या जीवों के किये गये पाप कर्मों का परिपाक पापकारी होता है।
भगवान् ने उत्तर दिया—कालोदायी! हाँ, होता है। कालोदायी ने पुनः जिज्ञासा व्यक्त की—भगवन्! किस प्रकार होता है?
भगवान् ने रूपक की भाषा में समाधन करते हुए कहा—कालोदायी! जिस प्रकार कोई पुरुष मनोज्ञ, सम्यक् प्रकार से पका हुआ शुद्ध अष्टादश व्यंजनों से परिपूर्ण विषयुक्त भोजन करता है। वह भोजन आपातभद्र खाते समय अच्छा होता है किन्तु ज्यों-ज्यों उसका परिणमन होता है त्यों-त्यों विकृति उत्पन्न होती है। वह परिणामभद्र नहीं होता। इसी प्रकार प्राणातिपात आदि अठारह प्रकार के पापकर्म आपातभद्र और परिणाम-अभद्र होते हैं। कालोदायी, इसी प्रकाप पापकर्म पाप-विपाक वाले होते हैं।
कालोदायी ने निवेदन किया-भगवन्! क्या जीवों के किये हुए कल्याण-कर्मों का परिपाक कल्याणकारी होता
... भगवान् ने कहा—हाँ होता है। • कालोदायी ने पुनः प्रश्न किया—भगवन् ! कैसे होता है?
भगवान् ने कहा—कालोदायी! प्राणातिपातविरति यावत् मिथ्यादर्शनशल्य से विरति आपातभद्र प्रती नहीं होती, पर परिणामभद्र होती है। इसी प्रकार हे कालोदायी! कल्याणकर्म भी कल्याणविपाक वाले होते हैं।
११०. १११. ११२. ११३.
उत्तराध्ययन सूत्रं २०३७ (क) न्यायदर्शन सूत्र ४।१ (ख) गौतमसूत्र अ. ४। आ. १, सू. २१ भगवती ७। १० भगवती ७।१०
[३८]