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(३) उदीरणा से दीर्घकाल के पश्चात् उदय में आने वाले कर्म शीघ्र-तत्काल उदय में आ जाते हैं।
(४) एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक भी शुभ होता हैं। एक कर्म शुभ होता है और उसका विपाक अशुभ होता है। एक कर्म अशुभ होता है उसका विपाक शुभ होता है, एक कर्म अशुभ होता है ओर उसका विपाक भी अशुभ होता है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, शुभ रूप में ही उदय में आता है, वह शुभ है और शुभ विपाक वाला है। जो कर्म शुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में उदय में आता है वह शुभ और अशुभ विपाक वाला है। जो कर्म अशुरू रूप में बंधता है, शुभ रूप में उदय में जाता है वह अशुभ और शुभ विपाक वाला है। और जो कर्म अशुभ रूप में बंधता है, अशुभ रूप में ही उदय में आता है वह अशुभ और शुभ विपाक वाला है। कर्म के उदय में जो यह अन्तर है उसका मूल कारण संक्रमण (बद्धकर्म में आत्मा द्वारा अन्यथाकरण) कर देना है। आत्मा स्वतन्त्र है या कर्म के अधीन
संक्रमण की स्थिति को छोड़ कर सामान्य रूप से जीव जैसा कर्म करता है वैसा ही उसका फल उसे प्राप्त होता है। शुभ कर्म का फल शुभ और अशुभ कर्म का फल अशुभ होता है।९९
कर्म की मुख्यतः दो अवस्थाएँ हैं-बन्ध (ग्रहण) और उदय (फल)। कर्म को बाँधने में जीव स्वतन्त्र है किन्तु उसके फल को गोगने में वह स्वतन्त्र नहीं। जिस प्रकार कोई व्यक्ति वृक्ष पर चढ़ता है; वह चढ़ने में स्वतन्त्र है, अपनी इच्छानुसर चढ़ सकता है; किन्तु असावधानीवश गिर जाये तो वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है।१०० वह इच्छा से गिरना नहीं चाहता है तथापि गिर जाता है, वह गिरने में स्वतन्त्र नहीं है। इसी प्रकार व्यक्ति भंग पीने में स्वतन्त्र है किन्तु उसका परिणाम भोगने में परतन्त्र है। इसकी इच्छा न होते हुए भी भंग अपना चमत्कार दिखाएगी ही। उसकी इच्छा का फिर कोई मूल्य नहीं।
उक्त कथन का यह अर्थ नहीं है बद्ध कर्मो के विपाक में आत्मा कुछ भी परिवर्तन नहीं कर सकता। जैसे भंग के नशे की विरोधी वस्तु का सेवन किया जाये तो भंग का नशा नहीं चढ़ता, या नाममात्र का ही चढ़ता है, उसी प्रकार प्रशस्त अध्यवसायों के द्वारा पूर्वबद्ध कर्म के विपाक को मन्द भी किया जा सकता है और नष्ट भी किया जा सकता है। उस अवस्था में कर्म प्रदेशों से उदित होकर ही निर्जीर्ण हो जाते हैं। उसकी कालिक मर्यादा (स्थितिकाल) को कम करके शीघ्र उदय में भी लाया जा सकता है।
दूसरे शब्दों में यों कह सकते हैं कि जीव के काल आदि लब्धियों की अनुकूलता होती है तब वह कर्मों को पछाड़ देता है और कर्मों की बहुलता होती है तब जीव उससे दब जाता है। इसलिए कहीं पर जीव कर्म के अधीन है और कहीं कर्म जीव के अधीन है।
कर्म के दो प्रकार हैं(१) निकाचित-जिनका विपाक अन्यथा नहीं हो सकता। (२) अनकिाचित-जिनका विपाक अन्यथा भी हो सकता है।
-दशाश्रुतस्कन्ध ६
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सुचिण्णा कम्मा सुचिण्णफला भवन्ति । दुच्चिण्णा कम्मा दुच्चिणफला भवन्ति ॥ कम्मं चिणंति सवसा, तस्सुदयम्मिउ, परवसा होन्ति। रुक्खं दुरुहइ सवसो, विगललसरपरवसो पडइ तत्तो॥
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विशेषावश्यक भाष्यक १३