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उदय
उदय का अर्थ काल-मर्यादा का परिवर्तन है। बंधे हुए कर्म-पुद्गल अपना कार्य करने में समर्थ हो जाते हैं तब उनके निषेक९२-कर्म-पुद्गलों की एक काल में उदय होने योग्य रचना-विशेष-प्रकट होने लगते हैं, वह उदय है। दो प्रकार से कर्म का उदय होता है
(१) प्राप्त-काल कर्म का उदय। (२) अप्राप्त-काल कर्म का उदय।
कर्म का बंध होते ही उसमें उसी समय विपाक-प्रदान का आरम्भ नहीं हो जाता। वह निश्चित अवधि के पश्चात् विपाक देता है। वह बीच की अवधि 'अबाधाकाल' कहलाती है। उस समय कर्म का अवस्थान-मात्र होता है। अबाधा का अर्थ अन्तर है। बंध और उदय के अन्तर का जो काल है, वह अबाधाकाल है।९३
लम्बे काल और तीव्र अनुभाग वाले कर्म तप आदि साधना के द्वारा विफल बनाकर स्वल्प समय में भोग लिये जाते हैं। आत्सा शीघ्र निर्मल हो जाती है।
यदि स्वाभाविक रूप से ही कर्म उदय में आएँ तो आकस्मिक घटनाओं की सम्भावना एवं तप आदि साधना की प्रयोजकता ही नष्ट हो जाती है, परन्तु अपवर्तना से कर्म की उदीरणा या अप्राप्तकाल उदय होता है। अतः आकस्मिक घटनाओं से कर्म-सिद्धांत के प्रति सन्देह उत्पन्न नहीं हो सकता। तप आदि साधना की सफलता का भी यही मुख्य कारण है।
___ कर्म का परिपाक और उदय सहेतुक भी होता है और निर्हेतुक भी। अपने आप भी होता है और दूसरों के द्वारा भी। किसी बाह्य कारण के अभाव में भी क्रोध-वेदनीय-पुद्गलों के तीव्र विपाक से अपने आप क्रोध आ गयायह उनका निर्हेतुक उदय है।९४ इइसी तरह हास्य५ भय, वेद, और कषाय के पुद्गलों का भी उदय होता है।९६ स्वतः उदय में आने वाले कर्म के हेतु
गतिहेतुक उदय-नरकगति में असाता का तीव्र उदय होता है। इसे गतिहेतुक विपाक कहते हैं।
स्थितिहेतुक उदय-मोहकर्म की उत्कृष्टतम स्थिति में मिथ्यात्व मोह का तीव्र उदय होता है। यह स्थितिहेतुक विपाक-उदय है।
भवहेतुक उदय-दर्शनावरण (जिसके उदय से नींद आती है) यह सभी संसारी जीवों में होता है तथापि मनुष्य और तिर्यंच दोनों को ही नींद आती है, देव नारक को नहीं। यह भवहेतक विपाक उदय है।
गति, स्थिति और भव के कारण से कितने ही कर्मों का स्वतः विपाक-उदय हो जाता है।
९२. कर्म-निषेको नाम-दलिकस्य अनुभवनार्थ रचना-विशेषः
-भगवती ६।३। २३६ वृत्ति ९३. बाधा-कर्मण उदयः, न बाधा अबाधा-कर्मणो बंधस्योदयस्य चान्तरम्। -भगवती ६।३। २३६ ९४. स्थानाङ्ग ४।७६ वृत्तिः पत्र १८५ ९५. स्थानाङ्ग ४ ९६. स्थानाङ्ग ४।७५-७९
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