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उत्पत्ति संभव है। प्रश्न है कि यदि जीव अपने शुद्ध स्वभाव का कर्त्ता है और पुद्गल भी अपने शुद्ध स्वभाव का कर्ता है तो राग-द्वेष आदि भावों का कर्त्ता कौन है? राग-द्वेष आदि भाव न जीव के शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं और न पुद्गल के ही शुद्ध स्वभाव के अन्तर्गत हैं अतः उनका कर्ता किसे मानें !
उत्तर है - चेतन आत्मा और अचेतन द्रव्यकर्म के मिश्रित रूप को ही इन अशुद्ध- वैभाविक भावों का कर्ता मान सकते हैं। राग-द्वेषादि भाव चेतन और अचेतन द्रव्यों के सम्मिश्रण से पैदा होते हैं वैसे ही मन, वचन और काय आदि भी । कर्मों की विभिन्नता ओर विविधता से ही यह सारा वैचित्र्य है।
निश्चयदृष्टि से कर्म का कर्तृत्व और भोक्तृत्व मानने वाले चिन्तक कहते हैं— आत्मा अपने स्वाभाविक ज्ञान, दर्शन, चारित्र आदि का और वैभाविक भाव राग, द्वेष आदि का कर्ता है परन्तु उसके निमित्त से जो पुद्गल परमाणुओं में कर्मरूप परिणमन होता है उसका वह कर्ता नहीं है। जैसे घड़े का कर्ता मिट्टी है, कुंभार नहीं । लोकभाषा में कुंभार को घड़े का बनाने वाला कहते हैं पर इसका सार इतना ही है कि घ्ज्ञट-पर्याय में कुंभार निमित्त है। वस्तुततः घट मृत्तिका का एक भाव है इसलिए उसका कर्ता भी मिट्टी ही है । ६९
किन्तु प्रस्तुत उदाहरण उपयुक्त नहीं है। आत्मा और कर्म का सम्बन्ध घड़े और कुंभार के समान नहीं है। घड़ा और कुंभार दोनों परस्पर एकमेक नहीं होते किन्तु आत्मा और कर्म नीरक्षीरवत् एकमेक हो जाते हैं। इसलए कर्म और आत्मा का परिणमन घड़ा और कुंभार के परिणमन से पृथक् प्रकार का है। कर्म-परमाणुओं और आत्म-प्रदेशों का परिणमन जड़ और चेतन का मिश्रित परिणमन होता है जिनमें अनिवार्य रूप से एक-दूसरे से प्रभावित होते हैं किन्तु घड़े और कुंभार के सम्बन्ध में यह बात नहीं है। आत्मा कर्मों का केवल निमित्त ही नहीं किन्तु कर्ता ओर भोक्ता भी है। आत्मा के वैभाविक भावों के कारण पुद्गल - परमाणु उसकी ओर आकर्षित होते हैं । इसलए वह उनके आकर्षण का निमित्त है । वे परमाणु आत्म-प्रदेशों के साथ एकमेक होकर कर्म रूप में परिणत हो जाते हैं, इसलिए आत्मा कर्मों का कर्ता है। वैभाविक भावों के रूप में आत्मा को उनका फल भोगना पड़ता है, इसलिए वह कर्मों का भोक्ता भी है।
कर्म की मर्यादा
जैन - कर्म - सिद्धान्त का यह स्पष्ट अभिमत है कि कर्म का सम्बन्ध व्यक्ति के शरी, मन और आत्म से है । व्यक्ति के शरी, मन और आत्मा की सुनिश्चित सीमा है और वह उसी सीमा में सीमित है । इसी प्रकार कर्म भी उसी सीमा में अपना कार्य करता है। यदि कर्म की सीमा न मानें तो आकाश के समान वह भी सर्वव्यापक हो जायेगा । सत्य तथ्य यह है कि आत्मा का स्वदेहपरिमाणत्व भी कर्म के ही कारण है। कर्म के कारण आत्मा देह में आबद्ध है तो फिर कर्म उसे छोड़ कर अन्यत्र कहाँ जा सकता है? संसारी आत्मा हमेशा किसी न किसी शरीर से बद्ध रहता है और सम्बद्ध कर्मपिण्ड भी उसी शरीर की सीमाओं में सीमित रहता है।
प्रश्न है— शरीर की सीमाओं में सीमित कर्म अपनी सीमाओं का परित्याग कर फल दे सकता है? या व्यक्ति के तन-मन से भिन्न पदार्थों की उत्पत्ति, प्राप्ति, व्यय आदि के लिए उत्तरदायी हो सकता है? जिस क्रिया या घटनाविशेष से किसी व्यक्ति का प्रत्यक्ष या परोक्ष किसी भी प्रकार का सम्बन्ध नहीं है उसके लिए भी क्या उस व्यक्ति के कर्म को कारण मान सकते हैं?
९१. पंचम कर्मग्रन्थ की प्रस्तावन, पृ. १३
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