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दूसरों द्वारा उदय में आने वाले कर्म के हेतु
पुद्गलहेतुक उदय - किसी ने पत्थर फेंका, घाव हो गया, असाता का उदय हो गया। यह दूसरों के द्वारा किया हुआ असातावेदनीय का पुद्गलहेतुक विपाक - उदय है।
किसी ने अपशब्द कहा, क्रोध आ गया। यह क्रोध- वेदनीय- पुद्गलों का सहेतुक विपाक - उदय है।
पुद्गल - परिणाम के द्वारा होने वाला उदय - बढ़िया भोजन किया किन्तु न पचने से अजीर्ण हो गया। उससे रोग उत्पन्न हुए । यह असातावेदनीय का विपाक - उदय है।
मदिरा आदि नशीली वस्तु का उपयोग किया, उन्माद छा गया। यह ज्ञानावरण का विपाक - उदय हुआ । यह पुद्गल - परिणमन- हेतुक - विपाक - उदय है।
इसी तरह विविध हेतुओं से कर्मों का विपाक - उदय होता है । ९७
यदि ये हेतु प्राप्त नहीं होते तो कर्मों का विपाक रूप में उदय नहीं होता। उदय का दूसरा प्रकार है प्रदेशोदय । इसमें कर्म-फल का स्पष्ट अनुभव नहीं होता है। यह कर्मवेदन की अस्पष्टानुभूति वाली दशा है। जो कर्म-बंध होता है वह अवश्य ही भोग जाता है।
गौतम ने जिज्ञासा प्रस्तुत की- भगवन्! किये हुए पाप कर्म भोगे बिना नहीं छूटते - क्या ?
ने समाधान करते हुए कहा- हाँ गौतम ! यह सत्य है ।
भगवान्
गौतम ने पुनः प्रश्न किया- कैसे भगवन् ?
भगवान् ने उत्तर दिया- गौतम! मैंने दो प्रकार के कर्म बतलाये हैं- (१) प्रदेश-कर्म और (२) अनुभाग-कर्म । जो प्रदेश-कर्म हैं वे अवश्य ही भोगे जाते हैं तथा जो अनुभाग-कर्म हैं वे अनुभाग (विपाक) रूप में कुछ भोगे जाते कुछ नहीं भोगे जाते । ९८
पुरुषार्थ से भाग्य में परिवर्तन हो सकता है
वर्तमान में हम जो पुरुषार्थ करते हैं उसका फल अवश्य ही प्राप्त होता है। भूतकाल की दृष्टि से उसका महत्त्व है भी और नहीं भी है। वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ यदि भूतकाल में किये गये पुरुषार्थ से दुर्बल है तो वह भूतकाल के किये गये पुरुषार्थ पर नहीं छा सकता। यदि वर्तमान में किया गया पुरुषार्थ भूतकाल के पुरुषार्थ से प्रबल तो वह भूतकाल के पुरुषार्थ को अन्यथा भी कर सकता है।
कर्म की केवल बंध और उदय से दो ही अवस्थाएँ होतीं तो बद्ध कर्म में परिवर्तन को अवकाश नहीं होता किन्तु अन्य अवस्थाएँ भी हैं
(१) अपवर्तना- इससे कर्म-स्थिति का अल्पीकरण [स्थितिघात और रस का मन्दीकरण (रसघात)] होता है। (२) उद्वर्तना से कर्म- स्थिति का दीर्घीकरण और रस का तीव्रीकरण होता है।
९७. प्रज्ञापना २३ । १ । २९३ ९८. भगवती १ । ४ । ४. वृत्ति
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