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दूसरे शब्दों में (१) निरुपक्रम इसका कोई प्रतिकार नहीं होता, इसका उदय अन्यथा नहीं हो सकता। (२) सोपक्रम —यह उपचा साध्य होता है।
जीव निकाचित कर्मोदय की अपेक्षा से कर्म के अधीन ही होता है। दलिक की दृष्टि से दोनों बातें हैं-जब तक जीव उस कर्म को नष्ट करने का प्रयास नहीं करता तब तक वह उस कर्म के अधीन ही होता है ओर जब
[-बल आदि सामग्री के सहयोग से सत् प्रयास करता है तब कर्म उसके अधीन होता है। जैसे-उदयकाल से पहले कर्म को उदय में लाकर नष्ट कर देना, उसकी स्थिति और उस को मन्द कर देना। पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति ओर फल-शक्ति नष्ट कर उन्हें बहुत ही शीघ्र नष्ट करने के लिए तपस्या की जाती
पातञ्जल योगभाष्य में भी अदृष्टजन्य वेदनीय कर्म की तीन गतियाँ निरूपित की गई हैं। उनमें एक गति यह है—कई कर्म बिना फल दिये ही प्रायश्चित्त आदि के द्वारा नष्ट हो जाते हैं।०१ इसे जैन-पारिभाषिक शब्दों में प्रदेशोदय कहा है। उदीरणा
___ गौतम ने भगवान् से प्रश्न किया—भगवन् ! जीव उदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है अथवा अनुदीर्ण कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता है? उत्तर मिला—जीव अनुदीर्ण पर उदीरणा-योग्य कर्म-पुद्गलों की उदीरणा करता
(१) उदीर्ण कर्म-पुद्गलों को पुनः उदीरणा की जाये तो उस उदीरणा की कहीं पर भी परिसमाप्ति नहीं हो सकती। अतः उदीर्ण की उदीरणा नहीं होती।
(२) जिन कर्म-पुद्गलों की उदीरणा वर्तमान में नहीं पर सूदूर भविष्य में होने वाली है या जिसकी उदीरणा१०२ नहीं होने वाली है, उन अनुदीर्ण-कर्म-पुद्गलों की भी उदीरणा नहीं हो सकती है।
(३) जो कर्म-पुद्गल उदय में आ चुके हैं (उदयानन्तर पश्चात्-कृत) वे शक्तिहीन हो गये हैं, उनकी भी उदीरणा नहीं होती।
(४) जो कर्म-पुद्गल वर्तमान में उदीरणा-योग्य (अनुदीर्ण किन्तु उदीरणा-योग्य) हैं उन्हीं की उदीरणा होती
उदीरणा का कारण
कर्म जब स्वाभाविक रूप से उदय में आते हैं तब नवीन पुरुष्ज्ञार्थ की आवश्यकता नहीं होती। अबाधा स्थिति पूर्ण होते ही कर्म-पुद्गल स्वत: उदय में आ जाते हैं। स्थिति-क्षय से पूर्व उदीरणा द्वारा उदय में लाये जा सकते हैं। एतदर्थ इसमें विशेष प्रयत्न या पुरुषार्थ की आवश्यकता होती है।१०३
१०१. कृतस्याऽविपक्वस्य नाशः अदत्तफलस्य कस्यचित् पापकर्मणः
प्रायश्चित्तादिना नाश इत्येका गतिरित्यर्थः। -पातंजलयोग २१३ भाष्य १०२. भगवती १।३। ३५ १०३. भगवती १।३। ३५
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