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हैं कि जीव कर्मों का कर्ता है तो इसका तात्पर्य यह नहीं कि जीव पुद्गल का निर्माण करता है। पुद्गल तो पहले से ही विद्यमान है। उसका निर्माण जीव नहीं करता, जीव तो अपने सन्निकट स्थित पुद्गल परमाणुओं को अपनीप्रवृत्तियों से आकृष्ट कर अपने में मिलाकर नीरक्षीरवत् कर देता है। यही द्रव्यकर्मों का कर्तृत्व कहलाता है। ऐसी स्थिति में यह कहना एकान्ततः युक्त नहीं है कि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है। यदि जीव द्रव्यकर्मों का कर्ता नहीं है तो फिर उसका कर्ता कौन है? पुद्गल अपने आप कर्म रूप में परिणत नहीं होता, जीव ही उसे कर्म रूप में परिणत करता है। दूसरा महत्वपूर्ण तथ्य यह है कि द्रव्यकर्मों के कर्तृत्व के अभाव में भावकर्मों का कर्तृत्व किस प्रकार सम्भव हो सकता है ! द्रव्यकर्म ही तो भावकर्म को उत्पन्न करते हैं । सिद्ध द्रव्यकर्मों से मुक्त हैं इसलिए भावकर्मों से भी मुक्त है। जब यह सिद्ध हो जाता है कि जीव पुद्गल - परमाणुओं को कर्म के रूप में परिणत करता है तो वह कर्म फल का भोक्ता भी सिद्ध हो जाता है। चूंकि जो कर्मों से बद्ध होता है वही उनका फल भी भोगता है। इस तरह संसारी जीव कर्मों का कर्ता और उनके फल का भोक्ता है किन्तु मुक्त जीव न तो कर्मों का कर्ता और न कर्मों का भोक्ता ही है
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जो विचारक जीव को कर्मों का कर्ता और भोक्ता नहीं मानते हैं, वे एक उदाहरण देते हैं। जैसे एक युवक, जिसका रूप अत्यन्त सुन्द है, कार्यवश कहीं पर जा रहा है, उसके दिव्य व भव्य रूप को निहार कर एक तरुणी उस पर मुग्ध हो जाय और उसके पीछे-पीछे चलने लगे तो उस युवक का उसमें क्या कर्तृत्व है? कर्त्री तो वह युवती है। युवक तो उसमें केवल निमित्तकारण है । ९° इसी प्रकार यदि पुद्गल जीव की ओर आकर्षित होकर कर्म के रूप में परिवर्तित होता है तो उसमें जीव का क्या कर्तृत्व है। कर्ता तो पुद्गल स्वयं है। जीव उसमेमं केवल निमित्तकारण है। यही बात कर्मों के भोक्तृत्व के सम्बन्ध में भी कह सकते हैं। यदि यही बात है तो आत्मा न कर्त्ता सिद्ध होगा, न भोक्ता, न बद्ध होगा, न मुक्त, न राग-द्वेषादि भावों से युक्त सिद्ध होगा और न उनसे रहित ही । परन्तु सत्य तथ्य यह नहीं है। जैसे किसी रूपवान् पर युवती मुग्ध होकर उसके पीछे हो जाती है वैसे जड़ पुद्गल चेतन आत्मा के पीछे नहीं लगते। पुद्गल अपने आप आकर्षित होकर आत्मा को पकड़ने के लिए नहीं दौड़ता। जीव जब सक्रिय होता है तभी पुद्गल-परमाणु उसकी ओर आकृष्ट होते हैं। अपने को उसमे मिलाकर उसके साथ एकमेक हो जाते हैं, और समय पर फल प्रदान कर उससे पुनः पृथक् हो जाते हैं । इस सम्पूर्ण प्रक्रिया के लिए जीव पूर्णरूप से उत्तरदायी है। जीव की क्रिया से ही पुद्गल परमाणु उसकी ओर खिंचते हैं, सम्बद्ध होते हैं और उचित फल प्रदान करते हैं । यह कार्य न अकेला जीव ही कर सकता है और न अकेला पुद्गल ही कर सकता है। दोनों के सम्मिलित और पारस्परिक प्रभाव से ही यह सब कुछ होता है। कर्म के कर्तृत्व में जीव की इस प्रकार की निमित्तता नहीं है कि जीव सांख्यपुरुष की भाँति निष्क्रिय अवस्था में निर्लिप्त भाव से विद्यमान रहता हो और पुद्गल अपने आप कर्म के रूप में परिणत हो जाते हों। जीव और पुद्गल के परस्पर मिलने से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। एकान्त रूप से जीव को चेतन और कर्म को जड़ नहीं कह सकते। जीव भी कर्म- पुद्गल के संसर्ग के कारण कथंचित् जड़ है और कर्म भी चैतन्य के संसर्ग के कारण कथंचित् चेतन हैं। जब जीव और कर्म एक-दूसरे से पूर्णरूप से पृथक् हो जाते हैं, उनमें किसी प्रकार का सम्पर्क नहीं रहता है तब वे अपने शुद्ध स्वरूप आ जाते हैं अर्थात् जीव एकान्त रूप से चेतन हो जाता है और कर्म एकान्त रूप से जड़ ।
संसारी जीव और द्रव्यकर्म रूप पुद्गल के मिलने पर उसके प्रभाव से ही जीव में राग-द्वेषादि भावकर्म की
९०. पंचम कर्मग्रन्थ, प्रस्तावना पृ. १२
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