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धर्म-अधर्म ये दोनों उसके भेद हैं।४८ इस तरह न्यायदर्शन में धर्म, अधर्म का समावेश संस्कार में किया गया है। उन्हीं धर्म-अधर्म को वैशेषिकदर्शन में अदृष्ट के अन्तर्गत लिया गया है। राग आदि दोषों से संस्कार होता है, संस्कार से जन्म, जन्म से राग आदि दोष और उन दोषों से पुनः संस्कार उत्पन्न होते हैं। इस तरह जीवों की संसार-परम्परा बीजांकुरवत् अनादि है।
सांख्य-योगदर्शन के अभिमतानुसार अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश इन पाँच क्लेशों से क्लिष्टवृत्ति उत्पन्न होती है। प्रस्तुत क्लिष्टवृत्ति से धर्माधर्म रूपी संस्कार पैदा होता है। संस्कार को इस वर्णन में बीजांकुरवत् अनादि माना है।४९
मीमांसादर्शन का अभिमत है कि मानव द्वारा किया जाने वाला यज्ञ आदि अनुष्ठान अपूर्व नामक पदार्थ को उत्पन्न करता है और वह अपूर्व ही सभी कर्मों का फल देता है। दूसरे शब्दों में कहं तो वेद द्वारा प्ररूपित-कर्म से उत्पन्न होने वाली योग्यता या शक्ति का नाम अपूर्व है। वहाँ पर अन्य कर्मजन्य सामर्थ्य को अपूर्व नहीं कहा है।५०
वेदान्तदर्शन का मन्तव्य है कि अनादि अविद्या या माया ही विश्ववैचित्र्य का कारण है।५१ ईश्वर स्वयं मायाजन्य है। वह कर्म के अनुसार जीव को फल प्रदान करता है, इसलिए फलप्राप्ति कर्म से नहीं अपितु ईश्वर से होती है।५२
| का अभिमत है कि मनोजन्य संस्कार वासना है और वचन और कायजन्य संस्कार अविज्ञप्ति है। लोभ द्वेष और मोह से कर्मों की उत्पत्ति होती है। लोभ, द्वेष और मोह से भी प्राणी मन, वचन और काय की प्रवृत्तियाँ करता है और उससे पनः लोभ, द्वेष और मोह पैदा करता है। इस तरह अनादि काल से यह संसारचक्र चल रहा है ।५३ जैनदर्शन में कर्म का स्वरूप
___ अन्य दर्शनकार कर्म को जहाँ संस्कार या वासना रूप मानते हैं वहाँ जैनदर्शन उसे पौद्गलिक मानता है। यह एक परखा हुआ सिद्धान्त है कि जिस वस्तु का जो गुण होता है वह उसका विघातक नहीं होता। आत्मा का गुण उसके लिए आवरण, पारतन्त्र्य और दुःख का हेतु नहीं हो सकता। कर्म आत्मा के आवरण, पारतन्त्र्य और दु:खों का कारण है, गुणों का विघातक है, अत: वह आत्मा का गुण नहीं हो सकता।
बेड़ी से मानव बंधता है, मदिरापान से पागल होता है और क्लोरोफार्म से बेभान। ये सभी पौदगलिक वस्तुएं हैं। ठीक इसी तरह कर्म के संयोग से आत्मा की भी ये दशाएं होती हैं, अतः कर्म भी पौद्गलिक है। बेड़ी आदि का बंधन बाहरी है, अल्प सामर्थ्य वाला है किन्तु कर्म आत्मा के साथ चिपके हुए हैं, अधिक सामर्थ्य वाले सूक्ष्म स्कन्ध हैं, एतदर्थ ही बेड़ी आदि की अपेक्षा कर्म-परमाणुओं का जीवात्मा पर बहुत गहरा और आन्तरिक प्रभाव पड़ता
है।
४८. प्रशस्तपादभाष्य, पृ. ४७-(चौखम्बा संस्कृत सिरीज, बनारस १९३०) ४९. योगदर्शन भाष्य १।५ आदि ५०. (क) शाबरभाष्य २।१।५
(ख) तंत्रवार्तिक २।१।५ आदि ५१. शांकरभाष्य २।१।१४ ५२. शांकरभाष्य ३।२। ३८-४१ ५३. (क) अंगुत्तरनिकाय ३। ३३ । १ (ख) संयुक्तनिकय १५ । ५। ६
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