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नहीं ? इस पर विज्ञों के दो मत हैं। कितने ही विज्ञों का यह मत है कि वेदों-संहिता ग्रन्थों में कर्मवाद का वर्णन नहीं आया है, तो कितने ही विद्वान् कहते हैं कि वेदों के रचयिता ऋषिगण कर्मवाद के ज्ञाता थे।
जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों में कर्मवाद की चर्चा नहीं है, उनका कहना है कि वैदिक काल के ऋषियों ने प्राणियों में रहे हुए वैविध्य और वैचित्र्य का अनुभव तो गहराई से किया पर उन्होंने उसके मूल की अन्वेषणा अन्तर में न कर बाह्य जगत् में की। किसी ने कमनीय कल्पना के गमन में विहरण करते हुए कहा कि सृष्टि की उत्पत्ति का कारण एक भौतिक तत्त्व है तो दूसरे ऋषि ने अनेक भौतिक तत्त्वों को सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। तीसरे ऋषि ने प्रजापति ब्रह्मा को ही सृष्टि की उत्पत्ति का कारण माना। इस तरह वैदिक युग का सम्पूर्ण तत्त्वचिन्तन देव
और यज्ञ की परिधि में ही विकसित हुआ। पहले विविध देवों की कल्पना की गई और उसके पश्चात् एक देव की महत्ता स्थापित की गई। जीवन में सुख और वैभव की उपलब्धि हो, शत्रु पराजित हों, अतः देवों की प्रार्थनाएँ की गईं और सजीव व निर्जीव पदार्थों की आहतियाँ दी गई। यज्ञकर्म का शनैः शनैः विकास हआ। इस प्रकार यह विचारधारा संहिताकाल से लेकर ब्राह्मणकाल तक क्रमशः विकसित हई।२७
आरण्यक और उपनिषद् युग में देववाद व यज्ञवाद का महत्त्व कम होने लगा और ऐसे नये विचार सामने आये जिनका संहिताकाल व ब्राह्मणकाल में अभाव था। उपनिषदों से पूर्व के वैदिक साहित्य में कर्मविषयक चिन्तन का अभाव है पर आरण्यक व उपनिषद्काल में 'अदृष्ट' के रूप कर्म का वर्णन मिलता है। यह सत्य है कि कर्म को विश्ववैचित्र्य का कारण मानने में उपनिषदों का भी एकमत नहीं रहा है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रारम्भ में काल, स्वभाव, नियति, यदृच्छा, भूत और पुरुष को ही विश्व-वैचित्र्य का कारण माना है, कर्म को नहीं।
जो विद्वान् यह मानते हैं कि वेदों-संहिता-ग्रन्थों में कर्मवाद या कर्म-गति आदि शब्द भले ही न हों किन्तु उनमें कर्मवाद का उल्लेख अवश्य हुआ है। ऋग्वेदसंहिता के निम्न मंत्र इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं-शुभस्पतिः (शुभ कर्मों के रक्षक), धियस्पतिः (सत्य कर्मों के रक्षक), विचर्षणिः तथा विश्वचर्षणिः (शुभ और अशुभ कर्मों के द्रष्टा) विश्वस्य कर्मणो धर्ता (सभी कर्मों के आधार) आदि पद देवों के विशेषणों के रूप में व्यवहृत हुये हैं। कितने ही मंत्रों से स्पष्ट रूप से यह प्रतिपादित किया गया है कि शुभ कर्म करने से अमरत्व की उपलब्धि होती है। कर्मों के अनुसार ही जीव अनेक बार संसार में जन्म लेता है और मरता है । वामदेव ने अनेक पूर्वभवों का वर्णन किया है। पूर्व जन्म के दुष्कृत्यों से ही लोग पाप कर्म में प्रवृत्त होते हैं, आदि उल्लेख वेदों के मंत्रों में हैं। पूर्वजन्म के पापकृत्यों से मुक्त होने के लिए ही मानव देवों की अभ्यर्थना करता है । वेदमंत्रों में संचित और प्रारब्ध कर्मों का भी वर्णन है। साथ ही देवयान और पितृयान का वर्णन करते हुए कहा गया है कि श्रेष्ठ-कर्म करने वाले लोग देवयान से ब्रह्मलोक को जाते हैं और साधारण कर्म करने वाले पितृयान से चन्द्रलोक में जाते हैं । ऋग्वेद में पूर्वजन्म के निकृष्ट कर्मों के भोग के लिए जीव किस प्रकार वृक्ष, लता आदि स्थावर शरीरों में प्रविष्ट होता है, इसका वर्णन है। मा वो भुजेमान्य जातमेनो''मा वा एनो अन्यकृतं भुजेम' आदि मन्त्रों से यह भी ज्ञात होता है कि एक जीव दूसरे जीव के द्वारा किये गये कर्मों को भी भोग सकता है और उससे बचने के लिए साधक ने इन मन्त्रों में प्रार्थना की है। मुख्य रूप से जो जीव कर्म करता है वही उसके फल का उपभोग भी करता है पर विशिष्ट शक्ति के अभाव से एक जीव के कर्मफल को दूसरा भी भोग सकता है ।२८ २७. (क) आत्ममीमांसा–पृ. ७९-८० पं. दलसुख मालवणिया
(ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ. ४३०, डॉ. मोहनलाल मेहता २८. (क) भारतीय दर्शन—पृ. ३९-४१, उमेश मिश्र (ख) जैन धर्म और दर्शन-पृ. ४३२
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