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हैं वे केवल व्यक्तिपरक हैं। दो अध्ययनों में क्रम-भेद हैं। स्थानाङ्ग में जो आठवाँ अध्ययन है वह विपाक का सातवाँ अध्ययन है और जो स्थानाङ्ग का सातवाँ अध्ययन है वह विपाक का आठवाँ अध्ययन है।
स्थानाङ्ग में दूसरे अध्ययन का नाम पूर्वभव के नाम के आधार पर "गोत्रास" रखा गया है, तो प्रस्तुत सूत्र में अगले भवके नाम के आधार पर उज्झितक रखा है। स्थानाङ्ग में तीसरे अध्ययन का अंड नामकरण पूर्वभव के व्यापार के आधार पर किया गया है तो विपाक में अग्रिम भव के नाम के आधार पर 'अभग्नसेन' रखा है। स्थानाङ्ग में नौवें अध्ययन का नाम सहस्रोद्दह आभरक या सहसोदाह है। सहस्रों व्यक्तियों को एक साथ जला देने के कारण उसका यह नाम दिया गया है जबकि विपाक में प्रस्तुत अध्ययन की मुख्य नायिका देवदत्ता होने के कारण अध्ययन का नाम देवदत्ता रखा गया है। स्थानाङ्ग में दसवें अध्ययन का नाम 'कुमार लिच्छई' है। लिच्छवी कुमारों के आचार पर यह नाम रखा गया है जबकि विपाक में इसका नाम 'अंज' है जो कथानक की मुख्य नायिका है। विज्ञों का यह मानना है कि लिच्छवी का सम्बन्ध लिच्छवी वंश विशेष के साथ होना चाहिए।
नन्दीसूत्र और स्थानाङ्गसूत्र में विपाक के द्वितीय श्रुतस्कन्ध मुखविपाक के अध्ययनों के नाम नहीं आये हैं। समवायांग में तो दोनों श्रुतस्कन्धों के अध्ययनों के नाम नहीं हैं। विपाकसूत्र में सुखविपाक के अध्ययनों के नाम इस प्रकार हैं-(१) सुबाहकुमार, (२) भद्रनन्दी, (३) सुजातकुमार, (४) सुवासवकुमार, (५) जिनदासकुमार, (६) धनपति, (७) महाबलकुमार, (८) भद्रनन्दीकुमार, (९) महाचन्द्रकुमार और (१०) वरदत्तकुमार।
समवायांग१५ के पचपनवं समवाय में उल्लेख है कि कार्तिकी अमावस्या की रात्रि में चरम तीर्थंकर महावीर ने पचपन ऐसे अध्ययन, जिनमें पुण्यकर्मफल को प्रदर्शित किया गया है और पचपन ऐसे अध्ययन जिनमें पापकर्मफल व्यक्त किया गया था, धर्मदेशना के रूप में प्रदान कर निर्वाण को प्राप्त किया। इससे प्रश्न होता है कि पचपन अध्ययन वाले कल्याणफलविपाक और पचपन अध्ययन वाले पापफलविपाक वाला आगम प्रस्तुत विपाक आगम ही है या यह आगम उससे भिन्न है?.
कितने ही चिन्तकों का यह मत है कि प्रस्तुत आगम वही आगम है, उसमें पचपन-पचपन अध्ययन थे, पर पैंतालीस-पैंतालीस अध्ययन इसमें से विस्मृत हो गये हैं और केवल बीस अध्ययन ही अवशेष रहे हैं। हमारी दृष्टि से चिन्तकों की यह मान्यता चिन्तन मांगती है। यह स्पष्ट है कि समवायांग में कल्याणफलपिाक और पापफलविपाक अध्ययनों के नाम नहीं हैं और वह जीवन की सान्ध्यवेला में दिया गया अन्तिम उपदेश है। आगम साहित्य में जहाँ पर श्रमण और श्रमणियों के अध्ययन का वर्णन है वहाँ पर द्वादशांगी या ग्यारह अंगों के अध्ययन का वर्णन है। यदि विपाक का प्ररूपण भगवान् महावीर ने अन्तिम समय में किया तो भगवान् के शिष्य किस विपाक का अययन करते, अतः यह स्पष्ट है कि अन्तिम समय में प्ररूपित कल्याणविपाक पापविपाक के पचपन-पचपन अध्ययन पृथक् हैं। यह विपाकसूत्र नहीं है।
साथ ही यहाँ यह भी स्पष्ट करना आवश्यक है कि समवायांग व नन्दी में विपाकसूत्र की जो परिचय-रेखा प्रस्तुत की गई है जिसमें बीस अध्ययन का उल्लेख है और उसमें जो पदों की संख्या आदि दी गई है उस संख्या से प्रस्तुत वर्तमान आगम की तुलना की जाये तो स्पष्ट है कि उसका बहुत-सा भाग नष्ट हो गया है और उसका आकार अत्यधिक छोटा हो गया है। पर यह स्पष्ट है कि समवायांग के लेखन व देववाचक के नंदी की रचना करते समय उसका आकार वही रहा होगा। उसके पश्चात् उसमें कमी आई होगी। शोधार्थियों के लिए यह विषय अन्वेषणीय है।
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समणे भगवं महावीरे अन्तिमराइयंसि पणपन्नं अज्झयणाई कल्लाणफलविवागाइं पणपन्नं अज्झयणाई पावफलविवागाइं वागरित्ता सिद्ध बद्धे जाव पहीणे। -समवायांग, समवाय-५५
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