Book Title: Agam 11 Ang 11 Vipak Sutra Stahanakvasi
Author(s): Madhukarmuni, Ratanmuni
Publisher: Agam Prakashan Samiti

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Page 16
________________ विपाक श्रुत: एक समीक्षात्मक अध्ययन जैन साहित्य आगम और आगमेतर—इन दो भागों में विभक्त है । साहित्य का प्राचीन विभाग आगम कहलाता है । केवलज्ञान केवलदर्शन होने के पश्चात् भगवान् ने समूचे लोक को देखा, इस विराट् विश्व में अनन्त प्राणी हैं और वे आधि, व्याधि और उपाधि से संत्रस्त हैं—– विविध दुःखों से आक्रान्त हैं। उनका करुणापूरित हृदय द्रवित हो उठा और जन-जन के कल्याण के लिये अपने मंगलमय प्रवचन प्रदान किये। प्रवचन प्रदान करने के कारण वे तीर्थंकर कहलाये । वे सत्य के प्रवक्ता थे। उन्होंने अपने प्रवचनों में बन्ध, बन्ध- हेतु, मोक्ष और मोक्ष - हेतु का स्वरूप बतलाया । भगवान् की वह अद्भुत और अनूठी वाणी आगम कहलाई । उनके प्रधान शिष्य गणधरों ने उसे सूत्र रूप में गूंथा, अतः आगम के दो विभाग हो गये - सूत्रागम और अर्थागम। ये आगम आचार्यों के लिए निधि रूप थे, अतः इनका नाम गणि-पिटक हुआ। उस गुम्फन के मौलिक - विभाग बारह थे, अत: उसका दूसरा नाम द्वादशांगी हुआ। बारह अंगों में विपाक का ग्यारहवाँ स्थान है। आचार्य वीरसेन ने कर्मों के उदय व उदीरणा को विपाक कहा है। आचार्य पूज्यपादरे और आचार्य अकलंकदेव ने लिखा है— विशिष्ट या नाना प्रकार के पाक का नाम विपाक है। पूर्वोक्त कषायों की तीव्रता, मन्दता आदि रूप भावाश्रव के भेद से विशिष्ट पाक का होना "विपाक" है । अथवा द्रव्य, क्षेत्र, काल, १. २. ३. ४. प्रस्तावना (प्रथम संस्करण से ) “तीर्थ” शब्द अपने में अनेक अर्थों को समेटे हुए है। उनमें से एक अर्थ प्रवचन है, अतः प्रवचनकार को तीर्थंकर कहा जाता था । बौद्ध साहित्य में इसी अर्थ में छह तीर्थंकरों का उल्लेख है। आचार्य शंकर ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में 'कपिल' आदि को तीर्थंकर कहा है। आचार्य जिनदास गणी महत्तर ने 'परं तत्र तीर्थंकर : और वयं तीर्थंकरा इति .......' लिखा है. देखिये सूत्रकृतांगचूर्णि (पृ. ४७, पृ. ३२२) । प्रवचन के आधार पर ही श्रमण, श्रमणी श्रावक और श्राविका को भी तीर्थ कहा है। - कम्माणमुदओ उदीरणा वा विवागो णाम । — धवला. १४ । ५.६, १४ ।१०।२ विशिष्टो नानाविधो वा पाको विपाकः । पूर्वोक्तकषायतीव्रमन्दादिभावास्रवविशेषाद्विशिष्ट: पाको विपाकः । अथवा द्रव्य क्षेत्रकालभवभावलक्षणनिमित्तभेदजनितवैश्वरूप्यो नानाविधः पाको विपाकः । सर्वार्थसिद्धि ८ । २१ । ३९८ । ३ तत्त्वार्थराजवार्तिक ८ । २१ ।१ । ५८३ । १३ [१३]

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