Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक १७.-उद्देशक २. ८. [प्र०] पांचंदियतिरिक्ख० पुच्छा । [उ०] गोयमा! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया बाला, नो पंडिया, बालपंडिया वि। मणुस्सा जहा जीवा । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणिया जहा नेरतिया।
९. [प्र०] अन्नउस्थिया णं भते! एवं आइक्खंति, जाव-परूवेंति-'एवं खलु पाणातिवाए, मुसावाए, जाव-मिच्छादसजसले वट्टमाणस्स अन्ने जीवो, अन्ने जीवाया, पाणाइवायवेरमणे, जाव-परिग्गहवेरमणे, कोहविवेगे, जाव-मिच्छादसणसल्लविवेगे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया; उप्पत्तियाए, जाव-परिणामियाए वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया; उग्गहे, ईहाअवाए, धारणाए य वट्टमाणस्स जाव-जीवाया, उट्ठाणे, जाव-परकमेवमाणस्स जाव-जीवाया; नेरइयत्ते, तिरिक्ख-मणुस्सदेवत्ते वट्टमाणस्स जाव-जीवाया, नाणावरणिजे, जाव-अंतराइए वमाणस्स जाव-जीवाया; एवं कण्हलेस्साए, जाव-सुक्क लेस्साए; सम्मदिट्ठीए ३, एवं चक्खुदंसणे ४, आभिणिबोहियणाणे ५, मतिअन्नाणे ३, आहारसन्नाए ४, एवं ओरालियसरीरे ५, एवं मणोजोए ३, सागारोवओगे, अणागारोवओगे वट्टमाणस्स अन्ने जीवे, अन्ने जीवाया' सेकहमेयं भंते एवं उ०] गोयमा! जणं ते अन्नउत्थिया एवं आइपखंति, जाव-मिच्छं ते एवं आहेसु । अहं पुण गोयमा! एवं आइक्खामि, जाव-परूवेमि-- 'एवं खलु पाणातिवाए, जाव-मिच्छादसणसल्ले वट्टमाणस्स सञ्चेव जीवे, सञ्चेव जीवाया, जाव-अणागारोवओगे वट्टमाणस्स जाव-सेञ्चव जीवाया।
१०.[प्र०] देवेणं भंते! महिड्दिए, जाव-महेसक्खे पुवामेव रूवी भवित्ता पभू अरूवि विउवित्ता णं चिद्वित्तए? उ०] णो तिणटे समढे। [प्र०] से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ-'देवेणं जाव-नो पभू अरूविं विउवित्ता णं चिट्टित्तए? [उ. गोयमा! महमेयं जाणामि, अहमेयं पासामि, अहमेयं बुज्झामि, अहमेयं अभिसमन्नागच्छामि, मए एयं नायं, मए एयं दिटुं, मम एवं बुद्ध, मए एयं अभिसमन्नागयं-'जणं तहागयस्स जीवस्स सरूविस्स, सकम्मस्स, सरागस्स, सवेदगस्स, समोहस्स, सले
८. [प्र०] पंचेंद्रिय तिर्यंचो संबंधे प्रश्न. [उ०] हे गौतम! पंचेंद्रिय तिर्यंचो बाल अने बालपंडित होय छे, पण पंडित होता नथी. मनुष्यो संबंधे सामान्य जीवोनी वक्तव्यता कहेवी. तथा वानव्यंतर, ज्योतिषिक अने वैमानिक संबंधे नैरयिकनी वक्तव्यता (सू०७) कहेवी.
जीव अने जीवा- ९. [प्र०] हे भगवन् ! अन्यतीर्थिको आ प्रमाणे कहे छे, यावत् प्ररूपे छे के प्राणातिपातमा, मृषावादमां यावत्-मिध्यादर्शनशस्मा मिन एवो
ल्यमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे' प्राणातिपातविरमणमां, यावत्-परिग्रहविरमणमा, क्रोधना त्यागमांयावत्-मिध्यादर्शनशल्यना त्यागमा वर्तता प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी तेनो जीवात्मा अन्य छे. औत्पत्तिकी बुद्धिमा, यावत्-पारिणामिकी बुद्धिमां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे, अवग्रह, ईहा, अवाय अने धारणामां वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे; उत्थानमा, यावत्-पुरुषकार-पराक्रममा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने जीवात्मा तेथी अन्य छे नैरयिकपणामां, पंचेंद्रियतियंचपणामां, मनुष्यपणामा तथा देवपणामां वर्तमान जीव अन्य छे अने जीवात्मा अन्य छे; ज्ञानावरणीयमां यावत्-अंतरायमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेथी जीवात्मा अन्य छे; कृष्णलेश्यामा, यावत्-शुक्ललेझ्यामा, तथा सम्यग्दृष्टि मिध्यादृष्टि अने सम्यगमिथ्यादृष्टिमां, १ चक्षुर्दर्शन २ अचक्षुर्दर्शन, ३ अवधिदर्शन अने ४ केवल दर्शनमां, ५ आभिनिबोधिकज्ञान, श्रुतज्ञान, अवधिज्ञान, मनःपर्यवज्ञान अने केवळज्ञानमां, मतिअज्ञान, श्रुतअज्ञान, अने विभंगज्ञानमा, आहारसंज्ञा, भयसंज्ञा, निद्रासंज्ञा अने मैथुनसंज्ञामां, अने एज प्रमाणे औदारिक शरीर, वैक्रिय शरीर, आहारक शरीर, तैजस शरीर अने कार्मण शरीरमां, तथा मनोयोग, वचनयोग, . अने काययोगमां, साकारोपयोग अने अनाकारोपयोगमा वर्तमान प्राणीनो जीव अन्य छे अने तेनो जीवात्मा अन्य छे. तो हे भगवन् ! ते केम सत्य होय ! [उ०] हे गौतम ! जे अन्यतीर्थिको ए प्रमाणे कहे छे, यावत्-तेओ मिथ्या कहे छे. हे गौतम! हुं तो आ प्रमाणे कहुं छु, यावत् प्ररूपं छ- "प्राणातिपात यावत्-मिथ्यादर्शनमा वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे, यावत्-अनाकारोपयोगमां वर्तमान प्राणीनो तेज जीव छे अने तेज जीवात्मा छे.",
सशरीरी देवमा १०. [प्र०] हे भगवन् ! मोटी ऋद्धिवाळो, यावत्-मोटा सुखवाळो देव पहेला रूपी होईने-मूर्त खरूप धारण करी पछी अरूपी
विकुवा रूप ( अमूर्त रूप ) विकुर्वीने रहेवा समर्थ छे ! (उ०] ते अर्थ समर्थ नथी. [प्र०] हे भगवन् ! आप ए प्रमाणे शा हेतुथी कहो छो ना सामर्थ्यनो अभाव अने तेनो हेतु. के 'मोटी ऋद्धिवाळो देव यावत्-अरूपी रूप विकुर्वीने रहेवा समर्थ नथी' ? [उ०] गौतम ! हुँ ए जाणुं छु, हुं ए जोउं छु, हुँ ए निश्चित
जाणुं छु, हुं ए सर्वथा जाणुं छु, में ए जाण्यु छे, में ए जोयुं छे, में निश्चितू जाण्युं छे अने में ए सर्वथा जाण्युं छे के, तेवा प्रकारना रूपवाळा, कर्मवाळा, रागवाळा, वेदवाळा, मोहवाळा, लेश्यावाळा, शरीरवाळा, अने ते शरीरथी नहि मूकायेला-जूदा नहीं थयेला जीवने
९ * अहिं 'सर्वत्र प्राणातिपातादि क्रियामा प्रवर्तमान जीव एटले प्रकृति अने जीवात्मा-पुरुष परस्पर भिन्न छ'-आवो सांख्यदर्शननो मत छे. सांख्यो प्रकृतिनुं कर्तृत्व अने पुरुषने अकर्ता अने भोक्ता माने छ. उपनिषदो पण जीव-अन्तःकरणविशिष्ट चैतन्य-नुं कर्तृत्व अने जीवात्मा-ब्रह्मनुं अकर्तृत्व माने छे, तेओने मते पण जीव अने ब्रह्मनो भोपाधिक मेद छे, माटे ते बन्ने दर्शनो अन्यतीर्थिकतरीके ग्रहण करेला होय तेम संभवे छे.
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