Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
View full book text ________________
शतक ३४.-शतको ७-१२. • भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
३३७ ७-१२ सयाई। नीललेस्सभवसिद्धियएगिदिपसु सयं सत्तम। एवं काउलेस्समवसिद्धियएगिदिएहि वि अट्टमं सयं । जहा मवासादगाह चत्तारि सयाणि एवं अभवसिद्धिपहि वि चत्तारि सयाणि भाणियवाणि । नवरं चरमअचरमवजा नव उद्देसगा भाणियचा, सेसं तं चेव । एवं एयाई पारस एगिदियसेढीसयाई । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ! ति जाव-विहए। एगिदियसेढीसयाई समचाई।
। नवरं चरमञ्चरमयजा गय उदसण माणिया, सच
चउतीसइमं एगिदियसेढिसयं समत्तं ।
७-१२ शतको. नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे सातमुं शतक कहेवू. ३४-७. ए रीते कापोतलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे पण आठमुं शतक कहे. ३४-८. जेम भवसिद्धिको संबंधे चार शतको कह्या छे तेम अभवसिद्धिको संबंधे पण चार शतक कहेवा. पण विशेष ए के, चरम अने अचरम सिवायना नव उद्देशको कहेवा. बाकी बधुं तेमज जाणवू. एम ए बार एकेंद्रियश्रेणीशतको कह्या. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'-एम कही यावत्-विहरे छे. ३४-१२. एकेन्द्रियश्रेणिशतको समाप्त.
चोत्रीशमुं एकेंद्रियश्रेणीशतक समाप्त
ESS
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org
Loading... Page Navigation 1 ... 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442