Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक ३५.-उदेशक १.
भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. अंतोमुहु, उकोसेणं बावीसं वाससहस्साई । समुग्घाया आदिल्ला चत्तारि । मारणंतियसमुग्धातेणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । उधट्टणा जहा उप्पलुईसए ।
१२. [प्र०] अह भंते ! सधपाणा, जाव-सधसत्ता कडजुम्मकडजुम्मएगिदियत्ताए उववभपुधा ? [उ०] हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो।।
१३. [प्र. कडजुम्मतेओयएगिदिया णं भंते ! कओ उववजंति ? [उ.] उववाओ तहेष ।
१४. प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमए-पुच्छा। [उ०] गोयमा! एकूणवीसा वा, संखेजा वा, असंखेज्जा वा, अणंता वा उववजंति, सेसं जहा कडजुम्मकडजुम्माणं जाव-अणंतखुत्तो। - १५. [प्र०] कडजुम्मदावरजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] उववाओ तहेव ।
१६. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं-पुच्छा। [उ०] गोयमा ! अट्ठारस वा संखेजा वा असंख्नेजा वा अणंता वा उपवजंति, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो।
१७. [प्र०] कडजुम्मकलियोगएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? [उ०] उववाओ तहेव । परिमाणं सत्तरस वा, संखेजा वा, असंखेजा वा, अणंता वा, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो।
१८. [प्र०] तेयोगकडजुम्मएगिदिया णं भंते ! कओहिंतो उववजंति ? (उ०] उववाओ तहेव, परिमाणं बारस वा संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा उववजंति, सेसं तहेव जाव-अणंतखुत्तो।
समय सुधी अने उत्कृष्ट अनंत उत्सर्पिणी अने अवसर्पिणीसुधी वनस्पतिकायिकना काळ पर्यन्त होय. *संवेध कहेवानो नथी. उत्पल संवेधादि. उद्देशकमां कह्या प्रमाणे (खं० ३ पृ० २१३ ) आहार कहेवो. पण विशेष ए के, तेओ दिशानो प्रतिबंध न होय तो छए दिशामाथी आवेलो आहार ग्रहण करे छे, अने जो प्रतिबंध होय तो कदाच त्रण दिशामांथी, चार दिशामाथी के पांच दिशामांथी भावेला आहारने ग्रहण करे छे. बाकी बधुं तेमज जाणवू. तेओनी स्थिति जघन्य एक समयनी अने उत्कृष्ट बावीश हजार वर्षनी छे. तेओने आदिना चार समुद्घातो होय छे. ते बधाय मारणांतिकसमुद्घातथी मरे छे अने ते सिवाय पण मरे छे. उत्पलोदेशकमा कह्या प्रमाणे उद्वर्तना कहेवी..
' १२. [प्र०] हे भगवन् ! बधा प्राणो यावत्-बधा सत्त्वो कृतयुग्मकृतयुग्म राशिरूप एकेंद्रियपणे पूर्व उत्पन्न थया छे? [उ. हे सर्व जीवोनो कृतगौतम ! हा, अनेकवार अथवा अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे.
युग्म कृतयुग्मराशि
रूप एकेन्द्रियपणे १३. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मत्र्योज राशिरूप एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे? [उ.] हे गौतम | पूर्वनी पेठे
उत्पाद.
कृतयुग्मत्र्योजराशिउपपात कहेवो.
रूप एकेन्द्रियोनो .
उत्पाद. १४. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे ! [उ०] हे गौतम ! ओगणीश, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पाद संख्या. उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं कृतयुग्मकृतयुग्म राशिप्रमाण एकेंद्रियो संबंधे जेम का तेम यावत्-पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्या सुधी जाणवू.
१५. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मद्वापरयुग्मप्रमाण एकेंद्रियो क्यांथी आवी उत्पन्न थाय छे ! [उ०हे गौतम! तेओनो उपपात कृतयुग्मदापर प्रमाण तेमज जाणवो.
एकेन्द्रियोनो
उत्पाद. १६. प्रि०] हे भगवन् ! ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न थाय छे ? प्रि० हे गौतम ! तेओ एक समये अढार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे' त्यां सुधी तेमज जाणवू.
१७. [प्र०] हे भगवन् ! कृतयुग्मकल्योजराशिप्रमाण एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [प्र०] हे गौतम ! तेओनो उपपात कृतयुग्म कल्योजरूप तेमज जाणवो. तेओनं परिमाण-सत्तर, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया ।
एकेन्द्रियोनो
उत्पाद. छे' या सुधी तेमज जाणवू.
१८. [प्र०] हे भगवन् ! योजकृतयुग्मराशिप्रमाण एकेंद्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे ? [उ०] हे गौतम ! उपपात तेमज व्योज कृतयुग्म जाणवो. तेओर्नु परिमाण-एक समये बार, संख्याता, असंख्याता के अनंत उत्पन्न थाय छे. बाकी बधुं तेमज जाणवू. यावत्-पूर्वे
उत्पाद. अनंतवार उत्पन्न थया छे'.
११* उत्पलोद्देशकमा उत्पलना जीवनो उत्पाद विवक्षित छे अने ते पृथ्विकायिकादि अन्य कायमा जई पुनः उत्पलमा आवी उपजे त्यारे तेनो संवेध थाय छे, पण अहीं कृतयुग्मकृतयुग्मराग्रिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद अधिकृत छे अने एकेन्द्रियो तो अनन्त उत्पन थाय छे, अने तओ त्यांथी नीकळी सजातीय के विजातीय कायमा उत्पन्न थइ पुनः एकेन्द्रियपणे उपजे त्यारे संवेध.थाय छे. पण तेओनुं त्यांथी नीकळवू असंभवित होवाथी संवेध थतो नथी. जे कृतयुग्मकृतयुग्मादि राशिरूप एकेन्द्रियोनो उत्पाद कह्यो छे ते त्रसकायिकथी आवीने उत्पन्न थाय तेनी अपेक्षाए छे, पण ते वास्तविक उत्पाद नथी, कारण के एकेन्द्रियोमा प्रतिसमय अनन्त जीवोनो उत्पाद थाय छे. तेथी अहीं एकेन्द्रियोनी अपेक्षाए संवेधनो असंभव होवाथी कह्यो नथी.-टीका.
___भग० खं० ३ श० ११ उ०१पृ० २१३. Jain Education International
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