Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
View full book text ________________
३५४
श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक ४०.-संक्षीपंचेन्द्रिय शतक १. उदीरगा वा अणुदीरगा वा । कण्हलेस्सा वा जाव-सुक्कलेस्सा वा । सम्मदिट्ठी वा, मिच्छादिट्ठी वा, सम्मामिच्छादिट्ठी वा। णाणी वा अन्नाणी वा, मणजोगी वइजोगी कायजोगी। उवयोगो, वन्नमादी, उस्सासगा वा नीसासगा वा, आहारगा य जहा एगिदियाणं; विरया य अविरया य विरयाविरया य । सकिरिया, नो अकिरिया।
३.०] ते णं भंते ! जीवा किं सत्तविहबंधगा वा अट्टविहबंधगा वा छबिहबंधगा वा एगविहबंधगा वा ? [उ०] गोयमा ! सत्तविहबंधगा वा, जाव-एगविहबंधगा वा।
४.प्र.] ते णं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता, जाव-परिग्गहसन्नोनउत्ता वा, नोसन्नोवउत्ता वा ? सवत्थ पुच्छा भाणियचा। [30] गोयमा! आहारसन्नोवउत्ता जाव-नोसन्नोवउत्ता वा। कोहकसायी वा जाव-लोभकसायी वा, अकसायी वा । इत्थीवेदगा वा पुरिसवेदगा वा नपुंसगवेदगा वा अवेद्गा वा। इत्थिवेदबंधगा वा पुरिसवेदबंधगा वा नपुंसगवेदबंधगा वा अबंधगा वा । सन्नी, नो असन्नी। सइंदिया, नो अणिदिया। संचिट्ठणा जहन्नेणं एक समयं, उक्कोसेणं सागरोपमसयपुहुत्तं सातिरेगं । आहारों तहेव जाव-नियम छहिसि । ठिती जहन्नेणं एवं समयं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो, वमाई। छ समुग्धाया आदिल्लगा। मारणंतियसमुग्धारणं समोहया वि मरंति, असमोहया वि मरंति । उपट्टणा जहेव उववाओ, न कत्थइ पडिसेहो, जाव-अणुत्तरविमाण त्ति ।
५. अह भंते ! सबपाणा जाव-अणंतखुत्तो । एवं सोलसु वि जुम्मेसु भाणियचं जाव-अणंतखुत्तो । नवरं परिमाणं जहा बेइंदियाणं, सेसं तहेव । 'सेवं भंते ! सेवं भंते' ! त्ति । ४०-१।
६. [प्र०] पढमसमयकडजुम्मकडजुम्मसन्निपंचिंदिया णं भंते! कओ उववजन्ति ? [उ०] उववाओ, परिमाणं. आहारो जहा एएसिं चेव पढमोद्देसए । ओगाहणा बंधो वेदो वेदणा उदयी उदीरगा य जहा बेन्दियाणं पढमसमयाणं, तहेव कण्हलेस्सा वा जाव-सुकलेस्सा वा । सेसं जहा बेन्दियाणं पढमसमइयाणं जाव-अणंतखुत्तो । नवरं इत्थिवेदगा वा
कृष्णलेश्यावाळा यावत्-शुक्ललेश्यावाळा होय छे, सम्यग्दृष्टि, मिथ्यादृष्टि अने सम्यग्मिध्यादृष्टि पण होय छे. अज्ञानी अथवा ज्ञानी होय छे. अने मनोयोगवाळा वचनयोगवाळा, अने काययोगवाळा पण होय छे. तथा तेओनो उपयोग, वर्णादि, उच्छासक, निःश्वासक तथा आहारकइत्यादि एकेंद्रियोनी पेठे जाणQ. तेओ विरतिवाळा, अविरतिवाळा अने विरताविरत-देशविरतिवाळा होय छे. तथा सक्रिय होय छे, पण अक्रिय नथी होता.
३. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो सप्तविध कर्मना बंधक छे, अष्टविध कर्मना बंधक छे, छ प्रकारना कर्मना बंधक छे के एकविध कर्मना बंधक छे ? [उ०] हे गौतम ! तेओ सप्तविध कर्मना बंधक छे, यावत्-एकविध कर्मना बंधक छे.
४. [प्र०] हे भगवन् ! शुं ते जीवो आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा, यावत्-परिग्रहसंज्ञाना उपयोगवाळा के नोसंज्ञाना उपयोगवाळा छे !-एम बधी पृच्छा करवी. [उ०] हे गौतम! तेओ आहारसंज्ञाना उपयोगवाळा छे अने यावत्-नोसंज्ञाना उपयोगवाळा छे. तेओ क्रोधकषायी यावत्-लोभकषायी के अकषायी होय छे. तेओ स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा, नपुंसकवेदवाळा अने यावत्-वेदरहित होय छे. स्त्रीवेदबंधक, पुरुषवेदबंधक, नपुंसकवेदबंधक अने अबंधक पण होय छे. संज्ञी होय छे पण असंज्ञी नथी होता. तेम इन्द्रियवाळा होय छे पण अनिद्रिय होता नथी. *संस्थितिकाळ जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट काइक अधिक बसोथी नवसो सागरोपम जाणवो. आहार संबंधे तेमज जाणवं, यावत्-अवश्य छए दिशानो आहार होय छे. स्थिति जघन्य एक समय अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी छे. आदिना छए समुद्घातो होय छे. मारणांतिक समुद्घातथी समवहत थइने मरे छे अने समवहत थया सिवाय पण मरे छे. उपपातनी पेठे उद्वर्तना पण जाणवी. अने तेनो क्याइ पण निषेध नथी. एम यावत्-अनुत्तरविमान सुधी जाणवू.
५. [प्र०] हे भगवन् ! बधाय प्राणो यावत्-पूर्वे अहीं अनंतवार उत्पन्न थया छे ! [उ०] यावत्-पूर्वे अनन्तवार उत्पन्न थया छे. ए प्रमाणे सोळो युग्मोमां यावत्-अनंतवार पूर्वे उत्पन्न थया छे त्यां सुघी कहे. विशेष ए के, परिमाण बेइन्द्रियोनी पेठे जाणवं अने बाकी
बधुं तेमज समजq. 'हे भगवन् ! ते एमज छे, हे भगवन् ! ते एमज छे'. ४०-१. कृतयुग्म २ रूप संधी ६. [प्र०] हे भगवन् ! प्रथम समयना कृतयुग्मकृतयुग्मराशिप्रमाण संज्ञी पंचेन्द्रियो क्याथी आवी उत्पन्न थाय छे! [उ०] तेओनो पंचेन्द्रियोनो उत्पाद.
उपपात, परिमाण अने आहार प्रथम उद्देशकमां कर्तुं छे तेम जाणवो. तथा जेम प्रथम समयना बेइन्द्रियोने कयुं तेम अवगाहना, बंध, वेद, वेदना, उदयी अने उदीरको संबंधे जाणवू. तेमज कृष्णलेश्यावाळा अने यावत्-शुक्ललेश्यावाळा संबंधे जाणवू. बाकी बधुं प्रथम समयना बेइन्द्रियोनी पेठे समजq. यावत्-'पूर्वे अनंतवार उत्पन्न थया छे'. परन्तु स्त्रीवेदवाळा, पुरुषवेदवाळा अने नपुंसकवेदवाळा होय
४* कृतयुग्म २ रूप संज्ञी पंचेन्द्रियोनो अवस्थितिकाळ जघन्य एक समय छे, कारण के समय पछी संख्यान्तर थवानो संभव छे भने उत्कृष्ट सागरोपमशतपृथक्त्व छे, कारणके ए पछी संज्ञी पंचेन्द्रियरूपे थतो नथी.-टीका.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org.
Loading... Page Navigation 1 ... 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442