Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक २५.-उद्देशक ७. भगवसुधर्मस्खामिप्रणीत भगवतीसूत्र.
२७७ ११३. [प्र०] से किं तं भत्तपाणदयोमोयरिया ? [उ०] भत्त० २ अटकुक्कुडिअंडगप्पमाणमेत्ते कवले आहारं आहारेमाणे अप्पाहारे, दुवालस० जहा सत्तमसए पढमोहेसए जाव-नो 'पकामरसभोजी'ति वत्त, सिया । सेत्तं भत्तपाणदरोमो. यरिया । सेत्तं दधोमोयरिया।
११४. [प्र०] से किं तं भावोमोयरिया ? [उ०] भावोमोयरिया अणेगविहा पनत्ता, तंजहा-अप्पकोहे, जाव-अप्पलोभे, अप्पसहे, अप्पझञ्झे, अप्पतुमंतुमे । सेत्तं भावोमोदरिया । सेत्तं ओमोयरिया।
११५. [प्र०] से किं तं भिक्खायरिया ? [उ०] भिक्खायरिया अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-दधाभिग्गहचरए-जहा उववाइए, जाव-सुद्धसणिए, संखादत्तिए । सेत्तं भिक्खायरिया।
११६. [प्र०] से किं तं रसपरिच्चाए ? [उ०] रसपरिचाए अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-निधिगितिए, पणीयरसवि. वजए-जहा उववाइए जाव-लूहाहारे । सेत्तं रसपरिचाए ।
११७. [प्र०] से किं तं कायकिलेसे ? [उ०] कायकिलेसे अणेगविहे पन्नत्ते, तंजहा-ठाणादीए, उकुडुयासणिए, जहाउववाइए जाव-सव्वगायपरिकम्म-विभूसविप्पमुक्के । सेत्तं कायकिलेसे।
११८. [प्र०] से किं तं पडिसलीणया ? [उ०] पडिसंलीणया चउचिहा पन्नत्ता, तंजहा-इंदियपडिसंलीणया, कसायपडिसलीणया, जोगपडिसंलीणया, विवित्तसयणासणसेवणया ।
११९. [प्र०] से किं तं इंदियपडिसलीणया ? [उ०] इंदिय० २ पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-सोइंदियविसयप्पयारणिरोहो वा, सोइंदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो, चक्खिदियविसय०, एवं जाव-फासिंदियविसयपयारणि रोहो वा फासिदियविसयप्पत्तेसु वा अत्थेसु रागदोसविणिग्गहो। सेत्तं इंदियपडिसलीणया।
प्रकार.
११३. [प्र०] भक्तपानद्रव्यऊनोदरिकाना केटला प्रकार छे! [उ०] कुकडीना इंडा प्रमाण आठ कोळिया आहार ले ते
मक्तपान द्रव्यअल्पाहारी कहेवाय अने जे बार कोळिया आहार ले-इत्यादि बधुं *सातमा शतकना प्रथम उद्देशकमां कह्या प्रमाणे यावत्-'ते प्रकाम
सनोदरिका रसनो भोजी न कहेवाय'-त्यां सुधी कहेQ. ए प्रमाणे भक्तपानद्रव्यऊनोदरिका कही अने ए रीते द्रव्यऊनोदरिका पण कही.
११४. [प्र०] भावऊनोदरिकाना केटला प्रकार कह्या छे ! [उ०] भावऊनोदरिका अनेक प्रकारनी छे, ते आ प्रमाणे- भावऊनोदरिका क्रोध ओछो करवो, यावत्-लोभ ओछो करवो; अल्प बोलवू, धीमे बोलवू, गुस्सामां निरर्थक बहु प्रलाप न करवो, हृदयस्थ कोप ओछो ना प्रकार. करवो.-ए रीते भाव ऊनोदरिकासंबंधे कयुं अने एम ऊनोदरिकासंबंधे पण कडं.
११५. [प्र०] भिक्षाचर्या केटला प्रकारनी छे ! [उ०] भिक्षाचर्या अनेक प्रकारनी छे. ते आ प्रमाणे-द्रव्याभिग्रहचर- भिक्षाचर्याना भिक्षामां अमुक चीजोने ज ग्रहण करवाना नियमपूर्वक भिक्षा करे, अमुक क्षेत्रना अभिग्रह पूर्वक भिक्षा करे-इत्यादि जेम 'औपपातिक सूत्रमा का छे तेम जाणवू. यावत्-शुद्ध निर्दोष भिक्षा करवी, दत्तिनी संख्या करवी. ए प्रमाणे भिक्षाचर्या संबंधे हकीकत कही. ११६. [प्र०] रसपरित्यागना केटला प्रकार छे ! [उ०] रसपरित्यागना अनेक प्रकार छे. ते आ प्रमाणे-घृतादि विकृति रसपरित्याग
ना प्रकार. . (विगइ ) नो त्याग करवो, स्निग्ध रसवाळू भोजन न करवू-इत्यादि जेम औपपातिक सूत्रमा कां छे तेम जाणवं, यावत्-लुखो आहार करवो. ए प्रमाणे रसपरित्याग विषे कह्यु..
११७. [प्र०] कायक्लेशना केटला प्रकार छे! [उ०] कायक्लेश अनेक प्रकारनो छे. ते आ प्रमाणे-कायोत्सर्गादि आसने कायकेशना प्रकार. रहेवं, उत्कटासने रहेवू-इत्यादि औपपातिक सूत्रमा कयुं छे तेम जाणवू. यावत्-शरीरना सर्व प्रकारना संस्कार अने शोभानो त्याग करवो. ए प्रमाणे कायक्लेश संबंधे कडुं.
११८. [प्र०] प्रतिसंलीनताना केटला प्रकार छे ! [उ०] प्रतिसंलीनता चार प्रकारनी छे. ते आ प्रमाणे-१ इन्द्रियप्रतिसं. प्रतिसंलीनतालीनता-इंदियोनो निग्रह करवो, २ कषायप्रतिसंलीनता-कषायोनो निग्रह करवो, योगसंलीनता-मन, वचन कायाना व्यापारनो निग्रह ना प्रकार. करवो, अने विविक्तशयनासनसेवन, स्त्री-पशु अने नपुंसक रहित वसतिमां निर्दोष शयनादि उपकरणोनो स्वीकार करी रहे.
११९. [प्र०] इंद्रियप्रतिसंलीनता केटला प्रकारनी छे! [उ०] इंद्रियप्रतिसंलीनताना पांच प्रकार छे-१ श्रोत्रेन्द्रियना विषय इन्द्रियप्रतिसलीप्रचारने रोकवो के श्रोत्रेन्द्रियद्वारा प्राप्त थयेल विषयमा रागद्वेषनो निरोध करवो, २ चक्षुना विषयप्रचारनो रोध करवो, के चक्षुद्वारा नताना प्रकार. प्राप्त विषयमा राग द्वेष न करवो. ए प्रमाणे यावत्-५ स्पर्शनेन्द्रियना विषय प्रचारनो निरोध करवो अने स्पर्शनेन्द्रियद्वारा अनुभवेल पदार्थोने विषे रागद्वेषनो निग्रह करवो. ए रीते इंद्रियप्रतिसंलीनता कही.
११३ * भग० खं०३ श०७ उ०१पृ. ६ सू० २२. ११५ । औप० पृ. ३८-२. आहारादिनो पात्रमा एक वार क्षेप ते दत्ति, अभिग्रहमा दत्तिनी संख्यानो नियम होय छे. ११६ 1 औप. पृ. ३९-२. ११७ 1 औप०प०३९-२.
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