Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 380
________________ ३२२ रायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे शतक ३३.-एकेन्द्रिय शतक ७. - २. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविकाइया णं भते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! दुविहा पनत्ता, तंजहासुहुमपुढविक्काइया य बायरपुढविक्काइया य । . ३. [प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहुमपुढविक्काइया णं भंते ! कइविहा पन्नत्ता? [उ०] गोयमा! दुविहा पनत्ता, तंजहा-पजत्तंगा य अपजत्तगा य । एवं बायरा वि । एएणं अभिलावेणं तहेव चउक्कओ भेदो भाणियो। ४.प्र०] कण्हलेस्सभवसिद्धीयअपजत्तसुहमपुढविक्काइयाणं भंते | कइ कम्मप्पगडीओ पनत्ताओ? उ. एवं एएणं अभिलावेणं जहेव ओहिउद्देसए तहेव जाव-वेदेति । ५. [प्र०] कइविहा णं भंते ! अणंतरोववन्नगा कण्हलेस्सा भवसिद्धिया एगिदिया पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! पंचविहा अणंतरोववनगा. जाव-वणस्सइकाइया । ६. [प्र०] अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयपुढविक्काइया णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहुमपुढविक्काइया-एवं दुयओ भेदो। ७.[प्र०] अणंतरोववन्नगकण्हलेस्सभवसिद्धीयसुहमपुढविक्काइयाणं भंते ! कइ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] एवं एएणं अभिलावणं जहेव ओहिओ अणंतरोववन्नउद्देसओ तहेव जाव वेदेति । एवं एएणं अभिलावणं एकारस वि उद्देसगा तहेव भाणियवा जहा ओहियसए जाव-'अचरिमो'त्ति। ___ छठें एगिदियसयं समत्तं । २. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक पृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छ ? [उ०] हे गौतम! तेओ बे प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-सूक्ष्मपृथिवीकायिको अने बादरपृथिवीकायिको. ३. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-पर्याप्तको अने अपर्याप्तको. ए रीते बादर पृथिवीकायिको संबंधे पण समजवु. ए अमिलापवडे तेज प्रकारे चार मेदो कहेवा. .. ४. [प्र०] हे भगवन् ! कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे ! [उ०] एम ए अभिलाप वडे जेम औधिक उद्देशकमां कह्यं छे तेम आ संबंधे यावत्-'वेदे छे' त्या सुधी समजवु. निन्तरोपपन्न कृष्ण ५. [प्र०] हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्नक कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो केटला प्रकारना कह्या छे! [उ०] हे गौतम ! भन्य एकेन्द्रियना' तेओ पांच प्रकारना कह्या छे. ते आ प्रमाणे-अनन्तरोपपन्न पृथिवीकायिक अने यावत्-वनस्पतिकायिक. प्रकार. ६. प्रि० हे भगवन् । अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक प्रथिवीकायिको केटला प्रकारना कह्या छ। उनहे गौतम ! तेओ बे प्रकारना कह्या छे, ते आ प्रमाणे-सूक्ष्म पृथिवीकायिको अने बादर पृथिवीकायिको-ए रीते बे भेद कहेवा. ७. [प्र. हे भगवन् ! अनन्तरोपपन्न कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक सूक्ष्मपृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ होय छे! उ०] ए प्रमाणे ए अमिलापथी जेम अनन्तरोपपन्न संबंधे औधिक उद्देशकमां कडं छे तेमज आ संबंधे पण यावत्-'वेदे छे' त्या सुधी जाणवू. ए रीते ए अभिलापवडे औधिक शतकमां कह्या प्रमाणे अगियार उद्देशको यावत्-छेला 'अचरम' नामना उद्देशक सुधी कहेवा. तेत्रीशमा शतकमां छटुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. सत्तमं सयं. १. जहा कण्हलेस्सभवसिद्धिपहिं सयं भणियं एवं नीललेस्सभवसिद्धिपहि वि सयं भाणियचं। . सत्तमं एगिदियसयं समत्तं। सातमुं एकेन्द्रिय शतक. १. जे रीते कृष्णलेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो संबंधे शतक कर्तुं छे ते ज रीते नीललेश्यावाळा भवसिद्धिक एकेंद्रियो विषे पण शतक कहेवू. तेत्रीशमा शतकमा सातमुं एकेंद्रिय शतक समाप्त. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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