Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 383
________________ शतक ३४.-एकेन्द्रिय शतक १.-उ० १. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३२५ सेढीए उववजमाणे दुसमइएणं विग्गहेणं उववज्जेजा । ३ दुहओवंकाए सेढीए उववजमाणे तिसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा। से तेणटेणं गोयमा ! जाव-उववजेजा। ४. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोह. णित्ता जे भविए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते पजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते। कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा ? [उ०] गोयमा! एगसमइएण वा-सेसं तं चेव, जाव-से तेणट्टेणं जाव-विग्गहेणं उववजेजा । एवं अपजत्तसुहुमपुढविकाइओ पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता पच्चच्छिमिल्ले चरिमंते बादरपुढविकाइएम अपजत्तपसु उववाएयचो, ताहे तेसु चेव पज्जत्तएसु ४। एवं आउक्काइएसु चत्तारि आलावगा-१ सुहुमेहि अपजत्तपहिं, २ ताहे पज्जत्तपहिं, ३ बायरेहिं अपजत्तपहिं, ४ ताहे पजत्तरहिं उववाएयचो । एवं चेव सुहुमतेउकाइएहि वि अपज्जत्तपहिं १, ताहे पजत्तपहिं उववाएयधो २।। ५. प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविए मणुस्सखेत्ते अपजत्तबादरतेउकाइयत्ताए उववजित्तए से णं भंते! कइसमइएणं विग्गहेणं उववजेजा? [उ०] सेसं एवं पजत्राबायरतेउकाइयत्ताए उववाएयचो ४ । वाउकाइएसु सुहुमवायरेसु जहा आउकाइपसु उववाहो तहा उववाएयवो ४ । एवं वणस्सइकाइएसु वि २० । ____६. [प्र०] पजत्तसुहुमपुढविक्काइए णं भंते ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए० ? [उ०] एवं पजत्तसुहुमपुढविकाइओ वि पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहणावेत्ता एएणं चेव कमेणं एएसु चेव वीससु ठाणेसु उववाएयंवो जाव-बादरवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु वि ४० । एवं अपजत्तवादरपुढविकाइओ वि ६० । एवं पजत्तबादरपुढविकाइओ वि ८० । एवं आउकाइओ वि चउसु वि गमएसु पुरच्छिमिल्ले चरिमंते समोहए, एयाए चेव वत्तच्चयाए एएसु चेव वीसइठाणेसु उववाएयचो १६० । सुहुमतेउकाइओ वि अपजत्तओ पजत्तओ य एएसु चेव वीसाए ठाणेसु उववाएयच्यो। विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. जो एकवक्र श्रेणिथी उत्पन्न थाय तो ते बे समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. जो ते द्विधावक श्रेणिथी उत्पन्न थाय तो त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय. ते कारणथी हे गौतम ! 'एक समय, बे समय के त्रण समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय छे' एम कर्दा छे. ४. प्र०] हे भगवन्! अपर्याप्त सूक्ष्मपृथिवीकायिक जे आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमान्तमां मरणसमुद्घात करीने आ अपर्याप्त सूक्ष्म पृयि-. रत्नप्रभा पृथिवीना पश्चिम चरमान्तमा पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रह . बीकायिकनी पर्याप्त । समपना वह सूक्ष्म पृथिवीकायिकगतिथी उत्पन्न थाय ! [उ०] हे गौतम ! एक समयनी [बे समयनी, के त्रण समयनी ] विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय-इत्यादि बधुं पूर्वनी पणे विग्रहगति. पेठे यावत्-ते कारणथी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय छे-त्यां सुधी जाणवू. एम अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकनो पूर्वचरमान्तमा मरणसमुद्घात करावी पश्चिम चरमान्तमा बादर अपर्याप्त पृथिवीकायिकपणे उपपात कहेवो अने पुनः त्यां ज पर्याप्तपणे उपपात कहेवो. ए प्रमाणे अप्कायिकने विषे पूर्वोक्त चार आलापक कहेवा. १ सूक्ष्म अपर्याप्त, २ सूक्ष्म पर्याप्त, ३ बादर अपर्याप्त अने ४ बादर पर्याप्त अप्कायिका उपपात कहेवो ४. एम सूक्ष्म तेजस्कायिक अपर्याप्त अने पर्याप्तमा उपपात *कहेवो ६२. ५. [१०] हे भगवन् ! अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक जे आ रत्नप्रभा पृथिवीना पूर्व चरमान्तमा मरणसमुद्घात करीने मनुष्यक्षेत्रमा अप० सू० पृथिवी अपर्याप्त बादर तेजस्कायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते हे भगवन् ! केटला समयनी विग्रह गतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] बाकी बधुं कायिकनी बादर तेजस्कायिकपणे पूर्वनी पेठे समज. एम पर्याप्त बादरतेजस्कायिकपणे पण उपपात कहेवो ४. जेम सूक्ष्म अने बादर अप्कायिकमा उपपात कह्यो तेम विग्रहगति. सूक्ष्म अने बादर वायुकायिकमां पण उपपात कहेवो. वनस्पतिकायिकमां पण ए प्रमाणे जाणवू. ४. (२०). ____६. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक आ रत्नप्रभा पृथिवीना-इत्यादि पूर्वोक्त प्रश्न. [उ०] पर्याप्त सूक्ष्म पृथ्वी- पर्याप्त सूक्ष्म पृथिवी कायिक. कायिकने पण रत्नप्रभाना पूर्व चरमांतमां मरणसमुद्घात करावी अनुक्रमे ए वीशे स्थानोमां यावत्-बादरपर्याप्त वनस्पतिकायिक सुधी उत्पन्न कराववो. (४०). ए प्रमाणे अपर्याप्त बादर पृथिवीकायिक (६०) अने पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकने पण पूर्ववत् जाणQ (८०). एम प्रमाणे अप्कायिकने पण चारे गमकने आश्रयी पूर्वचरमांतमा समुद्घातपूर्वक ए पूर्वोक्त वक्तव्यतावडे उपरना वीश स्थानकोमा उत्पन्न कराववो (१६०). अपर्याप्त अने पर्याप्त बन्ने प्रकारना सूक्ष्म तेजस्कायने पण ए ज वीश स्थानकोमा उपर कह्या प्रमाणे उत्पन्न कराववो (२००). ४ * रत्नप्रभाना पश्चिम चरमान्तमा बादर तेजस्कायिकनो असंभव होवाथी सूक्ष्म पर्याप्त अने अपर्याप्तना बे भांगा कया अने बादरपर्याप्त अने अपर्याप्तना बे भांगा मनुष्यक्षेत्रने आश्रयी पछीना.सूत्रद्वारा कहे छे. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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