Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 389
________________ शतक ३४.-एकेन्द्रियशतक १.-उद्देशक १. भगवत्सुधर्मखामिप्रणीत भगवतीसूत्र. ३३१ २६. [प्र०] अपजत्तसुहुमपुढविकाइए णं भंते ! लोगस्स दाहिणिल्ले चरिमंते समोहए, समोहणित्ता जे भविष, लोगस्स दाहिणिल्ले चेव चरिमंते अपजत्तसुहुमपुढविकाइयत्ताए उववजित्तए० १ [उ०] एवं जहा पुरच्छिमिले समोहओ पुरच्छिमिले चेव उववाहओ तहेव दाहिणिल्ले समोहए दाहिणिल्ले चेव उववाएयचो, तहेव निरवसेसं जाव-सुहुमवणस्सहकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइपसु चेव पजत्तएसु दाहिणिल्ले चरिमंते उववाइओ, एवं दाहिणिल्ले समोहओ पञ्चच्छिमिल्ले चरिमंते उववाए । नवरं दुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो, सेसं तहेव । दाहिणिले समोहओ उत्तरिले चरिमंते उववाएयचो जहेव सटाणे तहेव । एगसमइय-दुसमइय-तिसमइय-चउसमइयविग्गहो। पुरच्छिमिल्ले जहा पञ्चच्छिमिल्ले, तहेव दुसमइय-तिसमइय-चउसमइअविग्गहो । पञ्चच्छिमिल्ले य चरिमंते समोहयाणं पञ्चच्छिमिल्ले चेव उववजमाणाणं जहा सटाणे । उत्तरिले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव । पुरच्छिमिल्ले जहा सट्ठाणे, दाहिणिल्ले एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तं चेव । उत्तरिले समोहयाणं उत्तरिल्ले चेव उववजमाणाणं जहेव सटाणे । उत्तरिले समोहयाणं पुरच्छिमिल्ल उववजमाणाणं एवं चेव । नवरं एगसमइओ विग्गहो नत्थि । उत्तरिले समोहयाणं दाहिणिल्ले उववजमाणाणं जहा सट्टाणे, उत्तरिले समोहयाणं पञ्चच्छिमिल्ले उववजमाणाणं एगसमइओ विग्गहो नत्थि, सेसं तहेव । जाव-सुहमवणस्सइकाइओ पजत्तओ सुहुमवणस्सइकाइएसु पजत्तएसु चेव । ___ २७. [प्र०] कहिं णं भंते ! वायरपुढविक्काइयाणं पजत्तगाणं ठाणा पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा ! सट्ठाणेणं अट्ठसु पुढवीसुजहा ठाणपदे, जाव-सुहुमवणस्सइकाइया जे य पजत्तगा जे य अपजत्तगा ते सव्वे एगविहा अविसेसमणाणत्ता सवलोगपरियावन्ना पन्नत्ता समणाउसो!। २८. [प्र०] अपजत्तसुदुमपुढविकाइयाणं भंते ! कति कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ? [उ०] गोयमा ! अट्ठ कम्मप्पगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-१ नाणावरणिजं जाव-८ अंतराइयं । एवं चउकएणं भेदेणं जहेव पगिदियसपसु जाव-बायरवणस्सहकाइयाणं पजत्तगाणं । . J २६. [प्र०] हे भगवन् ! जे अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिक लोकना दक्षिण चरमांतमा मरणसमुद्घात करी लोकना दक्षिण चरमातमांज अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकपणे उत्पन्न थवाने योग्य छे ते केटला समयनी विग्रहगतिथी उत्पन्न थाय ? [उ०] हे गौतम ! जेम पूर्व चरमांतमा समुद्घात करी पूर्व चरमांतमांज उपपात कह्यो तेमज दक्षिण चरमांतमा समुद्घात अने दक्षिण चरमांतमांज उपपात कहेवोइत्यादि बधुं पूर्व प्रमाणेज कहेवं, यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमा दक्षिण चरमांतमा उपपात कह्यो एम दक्षिण चरमांतमा समुद्घात अने पश्चिम चरमांतमा उपपात कहेवो. विशेष ए के, बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी अने बाकी बधुं तेमज जाणवू. जेम स्वस्थानमा कडं तेम दक्षिण चरमांतमां समुद्घात अने उत्तर चरमांतमा उपपात कहेवो, अने एक समय, बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी. पश्चिम चरमान्तनी पेठे पूर्व चरमांतने विषे जाणवू. तेमज बे समय, त्रण समय के चार समयनी विग्रहगति जाणवी. पश्चिम चरमांतमा समुद्घात करी अने पश्चिम चरमांतमा उत्पन्न थता पृथिवीकायिकादि संबंधे जेम स्वस्थानमा कडं तेम जाणवू. उत्तर चरमांतमा उत्पन्न थता जीवोने आश्रयी एक समयनी विग्रहगति नथी. बाकी बधुं तेमज जाणवू. पूर्व चरमांत संबंधे स्वस्थाननी पेठे समजवू. दक्षिण चरमांतमा एक समयनी विग्रहगति नथी अने बाकी बधुं तेमज समजवू. उत्तरमा समुद्धातने प्राप्त थएला अने उत्तरमा उपजता जीवो संबंधे स्वस्थाननी पेठे जाणवू. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त-थएला अने पूर्वमा उत्पन्न थता पृथिवीकायिकादि संबंधे पण एज रीते समज. विशेष ए के, एक समयनी विग्रहगति नथी. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त थएला अने दक्षिणमा उत्पन्न थता जीवो संबंधे खस्थाननी पेठे जाणवू. उत्तरमा समुद्घातने प्राप्त थयेला अने पश्चिममा उत्पन्न थता जीवोने आश्रयी एक समयनी विग्रहगति नथी, बाकी बधुं तेमज जाणवं. यावत्-पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकनो पर्याप्त सूक्ष्म वनस्पतिकायिकोमा उपपात कहेवो. २७. [प्र०] हे भगवन् ! पर्याप्त बादर पृथिवीकायिकोनां स्थानो क्या कह्या छे! [उ०] हे गौतम । तेओनां स्थान खस्थानने अपेक्षी वादर पृथिवीकायिआठ पृथ्वीओमां छे-इत्यादि स्थानपदमां कह्या प्रमाणे जाणवं, यावत्-पर्याप्त अने अपर्याप्त ते बधा सूक्ष्म वनस्पतिकायिको एक प्रकारना कोना स्थान. छे, तेओमां कांइ पण विशेष या भिन्नता नथी. हे आयुष्मन् श्रमण | तेओ सर्वलोकमां व्याप्त छे. २८. [प्र०] हे भगवन् । अपर्याप्त सूक्ष्म पृथिवीकायिकोने केटली कर्मप्रकृतिओ कही छे ! [उ०] हे गौतम | तेओने आठ कर्म अपर्याप्त सूक्ष्म पृथि वीकायने कर्म प्रकृतिओ कही छे, ते आ प्रमाणे-ज्ञानावरणीय अने यावत्-अंतराय. ए प्रमाणे चारे भेदो वडे जेम एकेंद्रिय शतकमां कडं छे, तेम यावत् प्रकृतिमो. पर्याप्त बादर वनस्पतिकायिक सुधी जाणवू. jan Education interm २७. * प्रज्ञा० पद २ प०७१. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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