Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

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Page 307
________________ शतक २५. - उद्देशक ६. भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र. २४९ ६७. [प्र०] कसायकुसीलस्स - पुच्छा । [४०] गोयमा ! जहनेणं पलिओवमपुदुक्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाहं । ६८. [प्र०] णियंठस्स- पुच्छा । [अ०] गोयमा ! अजहन्नमणुक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं १३ । ६९. [०] पुलागस्स णं भंते! केवतिया संयमट्ठाणा पत्ता ? [अ०] गोयमा ! असंखेजा संयमट्टाणा पन्नत्ता । एवं जाव- कसायकुसीलस्स । ७०. [प्र०] नियंठस्स णं भंते! केवइया संजमट्टाणा पन्नत्ता ? [ उ०] गोयमा ! एगे अजद्दन्नमणुकोसए संजमट्ठाणे, ७१. [ प्र० ] एतेसि णं भंते ! पुलाग - बउस-पडिसेवणा- कसायकुसील - नियंठ - सिणायाणं संजमट्टाणाणं कयरे करे० जाव - विसेसाहिया वा ? [30] गोयमा ! सवत्थोवे नियंठस्स सिणायस्स य एगे अजहन्नमणुक्कोसप संजमट्ठाणे, पुलागस्स णं संजमट्ठाणा असंखेजगुणा, बउसस्स संजमट्टाणा असंखेज्जगुणा, पडिसेवणाकुसीलस्स संजमट्टाणा असंखेजगुणा; कसायकुसीलस्स संजमट्ठाणा असंखेजगुणा १४ । एवं सिणायस्स वि । ७२. [०] पुलागस्स णं भंते ! केवतिया चरित्तपजवा पन्नत्ता ? [अ०] गोयमा ! अनंता चरित्तपजवा पन्नत्ता, एवं जाव - सिणायस्स । ७३. [प्र०] पुलाए णं भंते! पुलागस्स सट्टाणसन्निगासेणं चरित्तपज्जवेहिं किं हीणे, तुल्ले, अब्भहिए ? [अ०] गोयमा ! सिय हीणे १, सिय तुले २, सिय अन्भहिए ३ । जइ हीणे अनंतभागहीणे वा, असंखेज्जइभागहीणे वा, संखेजइभागहीणे वा, संखेजगुणहीणे वा, असंखेज्जगुणहीणे वा, अनंतगुणहीणे वा । अह अन्भहिए अनंतभागमन्भहिए वा, असंखेज्जरभागमन्भहिए वा संखेज्जइभागमध्भहिए वा, संखेजगुणमन्भहिए वा, असंखेजगुणमन्भहिए वा, अनंतगुणमन्भहिए वा । ६७. [प्र०] हे भगवन् ! देवलोकमां उत्पन्न थता कषायकुशीलनी केटला काळ सुधीनी स्थिति कही छे ? [उ०] हे गौतम! कषायकुशीलनी देवजघन्य बेथी नव पल्योपम सुधीनी अने उत्कृष्ट तेत्रीश सागरोपमनी स्थिति कही छे. लोकमां स्थिति. ६८. [प्र०] देवलोकमां उत्पन्न थता निग्रंथनी केटला काळनी स्थिति कही छे ! [ उ०] हे गौतम ! जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय निर्ग्रन्नी देवलोतेश सागरोपमनी स्थिति कही छे. कमां स्थिति. ६९. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटलां संयमस्थानो कहेलां छे ? [अ०] हे गौतम! *असंख्याता संयमस्थानो कयां छे. ए प्रमाणे यावत् - कषायकुशील सुधी जाणवुं. ७०. [प्र०] हे भगवन् ! निग्रंथने केटलां संयमस्थानो कहेलां छे ? [उ०] हे गौतम ! तेने जघन्य अने उत्कृष्ट सिवाय एक संयमस्थान कह्युं छे. ए प्रमाणे स्नातक विषे पण जाणवुं. बहुत्व. ७१. [प्र० ] भगवन् ! पूर्वोक्त पुलाक, बकुश, प्रतिसेवनाकुशील, कषायकुशील, निग्रंथ अने स्नातकना संयमस्थानोमां कयां कोनाथी संयमस्थानोनुं अस्प यावत्-विशेषाधिक छे ? [उ०] हे गौतम ! निर्ग्रथ अने स्नातकने सर्वं करतां अल्प अजघन्य अनुत्कृष्ट एकज संयमस्थान छे. तेथी पुलाकने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी बकुशने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी प्रतिसेवनाकुशीलने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे, तेथी कषायकुशीलने असंख्यातगुणां संयमस्थानो छे. ७२. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाकने केटला चारित्रपर्यवो होय ! [उ०] हे गौतम! पुलाकने अनन्त चारित्रपर्यवो होय. ए प्रमाणे पुलाकादिने चारित्र यावत् - स्नातक सुधी जाणवुं. पर्याय. ७३. [प्र०] हे भगवन् ! पुलाक स्वस्थानसंनिकर्ष - पोताना सजातीय चारित्रपर्यायोनी अर्थात् एक पुलाक चारित्रपर्यायनी अपेक्षाए शुं हीन होय, तुल्य होय के अधिक होय ? [उ०] हे गौतम! कदाच हीन होय, कदाच कदाच अधिक होय. जो हीन होय तो अनंतभाग हीन होय, असंख्यभाग हीन होय, संख्यातभाग हीन होय, होय, असंख्यातगुण हीन होय अने अनंतगुण हीन होय. जो अधिक होय तो अनंतभाग अधिक होय, असंख्यभाग अधिक होय, संख्यातभाग अधिक होय, संख्यातगुण अधिक होय, असंख्यातगुण अधिक होय अने अनंतगुण अधिक होय. बीजा पुलाकना तुल्य होय, अने संख्यातगुण हीन ६९ * संयम चारित्रना शुद्धि - अशुद्धिना वत्ता ओछापणाने लीधे थयेला मेदो ते संयमस्थान. ते असंख्याता होय छे. तेमां प्रत्येक संयमस्थानना सर्वाकाशप्रदेश गुणित सर्वाकाश प्रदेश प्रमाण ( अनन्तानन्त) पर्यायो ( अंशो ) होय छे. ते संयमस्थानो पुलाकने असंख्यात होय छे. कारण के चारित्रमोहनीयनो क्षयोपशम विचित्र होय छे. एम यावत् — कषायकुशील सुधी जाणवुं निर्मन्थने एकज संयमस्थान होय छे, कारण के कषायनो क्षय के उपशम एक प्रकारनो होवाथी तेनी शुद्धि पण एकज प्रकारनी छे. ७३ + निकर्ष - संनिकर्ष, पुलाकादिनुं परस्पर संयोजन, ख- पोताना सजातीय, स्थान- पर्यवोनुं आश्रय, अर्थात् पुलाकादिने पुलाकादिनुं संनिकर्षसंयोजन ते स्वस्थान संनिकर्ष कहेवाय छे. विशुद्ध संयमस्थानना संबन्धी होवाथी विशुद्धतर पर्यायनी अपेक्षाए अविशुद्ध संयमस्थानना संबन्धी होवाथी अविशुद्धतर पर्यवो द्वीन कहेवाय छे अने ते पर्यववाळा साधु पण हीन कहेवाय छे. समान एवा शुद्ध पर्यवोना संबन्धथी तुल्य अने विशुद्धतर पर्यंवना योगथी अधिक कहेवाय छे. - टीका. ३२ भ० सू० Jain Education International १४ संयमद्वारपुलाकने संयमस्थानो. निर्ग्रन्थने संयम स्थान. For Private & Personal Use Only १५ संनिकर्षदारपुलाको स्वस्थान संनिकर्ष. www.jainelibrary.org

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