Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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श्रीरायचन्द्र-जिनागमसंग्रहे
शतक २०.-उद्देशक १.
३. [प्र० तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा मणे ति वा वई ति वा-'अम्हे णं इट्टाणिद्वे रसे इटा. णिट्टे फासे पडिसंवेदेमो' ? [उ०] णो तिण? समटे, पडिसंवेदेति पुण ते । ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं बारस संवच्छराई, सेसं तं चेव, एवं ते इंदिया(ण)वि, एवं चरिदिया(ण)वि, नाणत्तं इंदिपसु ठितीए. य, सेसं तं चेव, ठिती जहा पन्नवणाए।
४. [प्र०] सिय भंते ! जाव-चत्तारि पंच पंचिंदिया एगयओ साहारणं० [उ०] एवं जहा बेदियाणं, नवरं छल्लेसाओ, दिट्ठी तिविहा वि, चत्तारि नाणा तिन्नि अनाणा भयणाए, तिविहो जोगो।
५. [प्र०] तेसि णं भंते ! जीवाणं एवं सन्ना ति वा पन्ना ति वा जाव-वती ति वा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो' ? [उ.] गोयमा! अत्थेगइयाणं एवं सन्ना इ वा पन्ना इ वा मणे इ वा वती तिवा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो'। अत्थेगइयाणं नो एवं सन्ना ति वा जाव-वती ति वा-'अम्हे णं आहारमाहारेमो', आहारेंति पुण ते ।
६.० तेसिणं भंते ! जीवाणं एवं सन्नाति वा जाव-वह ति वा-'अम्हे णं इट्टाणि? सद्दे इट्टाणिटे रूवे, इट्टाणिटे गंधे, इट्ठाणिद्वे रसे, इटाणिटे फासे पडिसंवेदेमो' ? [उ०] गोयमा! अत्थेगतियाणं एवं सन्ना ति वा जाव-वयी ति वा-'अम्हे णं इट्ठाणिटे सद्दे, जाव-इट्टाणिटे फासे पडिसंवेदेमो'; अत्थेगतियाणं नो एवं सन्ना इ वा जाव-वयी इवा- 'अम्हे णं इट्टाणिटे सहे, जाव-इट्टाणिढे फासे पडिसंवेदेमो', पडिसंवेदेति पुण ते।
७. [प्र०] ते णं भंते ! जीवा किं पाणाइवाए उवक्खाइजंति? [१०] गोयमा! अत्थेगतिया पाणातिवाए वि उवक्खाइजंति, जाव-मिच्छादसणसल्ले वि उवक्खाइजंति, अत्थेगतिया नो पाणाइवाए उवक्खातिजंति, नो मुसा० जायनो मिच्छादसणसल्ले उवक्खातिजति । जेसि पिणं जीवाणं ते जीवा एवमाहिति तेसि पिणं जीवाणं अत्थेगतियाणं विनाए
संशा अने प्रशा- दिनो अभाव.
३. प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे इष्ट अने अनिष्ट रसने तथा इष्ट अने अनिष्ट स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे ? [उ०] ए अर्थ समर्थ नथी, परन्तु तेओ ते रसदिकनो अनुभव करे छे. तेओनी जघन्य स्थिति-आयुष अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्ट स्थिति बार वरसनी छे. बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवु. ए प्रमाणे तेइन्द्रिय अने चउरिन्द्रिय जीवो संबंधे पण कहे. मात्र स्थितिमां अने इन्द्रियोमा विशेष छे, बाकी बधुं पूर्व प्रमाणे जाणवू. स्थिति *प्रज्ञापनासूत्रमा कह्या प्रमाणे जाणवी.
पंचेन्द्रिय साधारण ४. [प्र०] हे भगवन् ! कदाचित् यावत्-चार पांच पंचेन्द्रियो भेगा मळीने एक साधारण शरीर बांधे ! [उ०] बधुं
। वेइन्द्रियोनी पेठे कहे. विशेष ए के तेओने छ ए लेश्याओ होय छे, सम्यग् , मिथ्यात्व अने मिश्र ए त्रणे दृष्टि होय छे, चार ज्ञान अने
त्रण अज्ञान भजनाए-विकल्पे होय छे अने योग त्रणे होय छे.
५. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे आहार करीए छीए'-एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे ? [उ०] हे गौतम ! केट
वोने (संज्ञी जीवोने ) 'अमे आहार ग्रहण करीए छीए' एवी संज्ञा, प्रज्ञा, मन के वचन होय छे, अने केटलाक जीवोने ( असंज्ञी जीवोने ) 'अमे आहार ग्रहण करीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन होतुं नथी, पण तेओ आहार तो करे छे.
६. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवोने 'अमे इष्ट के अनिष्ट रूप, गंध, रस अने स्पर्शने अनुभवीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन होय छे ? [उ०] हे गौतम ! 'अमे इष्ट के अनिष्ट शब्द यावत्-स्पर्शने अनुभवीए छीए'-एवी संज्ञा, यावत्-वचन केटलाएक जीवोने (संज्ञी जीवोने ) होय छे अने 'अमे इष्ट के अनिष्ट शब्दने यावत् - स्पर्शने अनुभवीए छीए' एवी संज्ञा, यावत्-वचन केटलाएक जीयोने ( असंज्ञी जीवोने ) नथी होतुं. पण तेओ ते शब्द वगेरेनो अनुभव तो करे छे.
७. [प्र०] हे भगवन् ! ते जीवो 'प्राणातिपातमा रहेला छे'-इत्यादि कहेवाय ! [उ०] हे गौतम ! ते जीवोमांना केटलाएक 'प्राणातिपातमां यावत्-मिध्यादर्शनशल्यमां पण रहेला छे'-एम कहेवाय छे अने केटलाएक जीवो 'प्राणातिपातमां, मृपावादमां यावत्-मिथ्यादर्शनशल्यमा रहेला छे'-एम कहेवातुं नथी. जे जीवोना प्राणातिपात-हिंसा वगेरे तेओ करे छे, ते जीवोमांना पण केटलाएक जीवोने 'अमे हणाइए छीए अने आ अमारा घातक छे' एवं भेदज्ञान होय छे अने केटलाएक जीवोने ए, भेदज्ञान होतुं नथी. तेमां उपपात सर्वजीवोधी यावत्-सर्वार्थसिद्धथी पण होय छे. स्थिति (आयुष) जघन्यथी अन्तर्मुहर्त अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपम होय छे.
- ३ * तेइन्द्रिय जीवनी उत्कृष्ट स्थिति ओगणपचास दिरुनी भने चउरिन्द्रियनी छ मास होय छे, अने जघन्य स्थिति बनी अन्तर्मुहूर्त जाणवी, जुओ-प्रज्ञा० पद ६५० ३११.
४ पंचेन्द्रिय जीवने मत्यादि चार ज्ञान होय छे अने केवळज्ञान अनिन्द्रियने ज होय छे-टीका.
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