Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust

View full book text
Previous | Next

Page 216
________________ व० संख्यात ही पं० तिर्यचनी असुरकुमारमा उत्पत्ति. परिमाणादि. संख्यात पं० श्वनी जघ सुरकुमारम उत्पत्ति. संख्यात० पं० चिनी उत्कृष्ट सुरकुमारम उत्पत्ति. ० असंख्यात तेर्यचनी जव० सुरकुमार म उत्पत्ति. ट असंख्यात चिनी उत्कृष्ट घरकुमारम उत्पत्ति. त० संधी तिर्य असुर कुमारमां उत्पत्ति. श्रीरामचन्द्र - जिनागमसंप्रद्दे ९. सो चेव अप्पणा जद्दन्नकालट्ठितीओ जाओ, जद्दनेणं दसवाससद्दस्सट्ठितीपसु, उफोसेणं सातिरेगपुचकोडी आउपसु पपजा । Jain Education International १५८ । १०. ते पं मंते १० अवसेसं तं चेत्र जाब- 'भयादेसो ति नयरं बोगाइणा जणं धणुपुटुचं, कोसेणं सातिरेगं धणुसहस्सं । ठिती जहन्नेणं सातिरेगा पुचकोडी, उक्कोसेण वि सातिरेगा पुचकोडी । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जहपेणं सातिरेगा पुषकोडी दसहिं वाससहस्सेहिं अम्महिया, उक्कोसेणं सातिरेगाओ दो पुषकोडीओ-पपतियं० ४ । 1 ११. सो चेव जनकालट्ठितीपसु उववन्नो, एस चेव वत्तष्वया । नवरं असुरकुमारट्ठिदं संवेदं च जाणेजा ५ । १२. सो चेव उकोसकालद्वितीपसु उचचनो, जत्रेणं सातिरेगपुधकोडिभाउसु, उफोसेन वि सातिरेगपुधकोसीबाडपशु उपचलेखा, सेसं तं चेत्र नवरं कालादेसेणं जणं सातिरेगाम दो पुचकोडीमो, उफोषेण वि खातिरेगामी दो पुछफोडीमो एवतियं कालं सेपेक्षा ६ । 1 १३. सो चे अप्पणा उशोसकालद्वितीयो जाओ, सो चेव पदमगमगो भाणियों नवरं ठिती दूद्वेणं तिनि पलियोमाई, उक्कोसेण वि तिनि पलिओवमाई । एवं अणुबंधो वि । कालादेसेणं जद्दन्नेणं तिनि पलिभोवमाहं दसाई वाससहस्लोई अष्भद्दिया, उक्कोसेणं छ पलिभोवमाइं - एवतियं ० ७ । वर्षनी स्थितिवाळा असुरकुमारमा उत्पन्न थाय. बाकी बधुं कांक अधिक वे पूर्वकोटी वर्ष एसो काळ यावत् १३. हवे ते पोते टाळनी स्थिति बनी असुरकुमा: के स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट त्रण पल्योपमनी होय छे, ८० असंख्यात मां उत्पत्ति. शतक २४-२१. १४. सो चे कालद्वतीयसु उपयचो, एस चेद धत्तश्या नवरं असुरकुमारद्विति संवेदं च जाणिला ८। १५. सो उफोसफालद्वितीपसु उपयचो, जहणं तिपलिभोषम० उफोसेन तिपलिभोषम० एस बेच पतया । नवरं कालादेसेणं जनेणं छप्पलिभवमाई, उक्कोसेण वि छप्पलिओ माई - एवतियं ० ९ । " १६. [प्र० ] जर संखेज्जवासाउयसन्निपंचिंदिय० जाव - उववज्जंति किं जलचर०, एवं जाव-पत्तसंखेज्जवासाउयस ९. जो से (असंख्यात वर्चना आयुषयाको संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्थचयोनिक) पोते जघन्यकाळनी स्थितिवाळो दोय अने असुरकुमा रमी उत्पन्न पाप तो से जघन्य दस हजार वर्ष अने उत्कृष्ट कांक अधिक पूर्यकोटी वर्षना आयुषचाळा असुरकुमारमा उत्पन्न चाय. १०. [प्र० ] हे भगवन् । ते जीवो एक समये केटला उत्पन्न याय ! [उ०] बाकी बधुं यावत्-भवादेश सुधी तेज प्रमाणे जाणवुं. विशेष ए छे के शरीरनी उंचाई जघन्यथी बेथी * नव धनुष सुधी अने उत्कृष्ट कोइक अधिक एक हजार धनुष होय छे. स्थिति जघन्य अने उत्कृष्ट कोइक अधिक पूर्वकोटी वर्धनी होय . ए प्रमाणे अनुबंध पण जागयो. कालनी अपेक्षाए जघन्यथी कोइक अधिक पूर्वकोटी सहित दस हजार वर्ष भने उत्कृष्ट फांइक अधिक वे पूर्वकोटी वर्ष-एटलो काळ या गमनागमन करे (४). ११. जो ते जयम्यकाळनी स्थितिवाज्य अनुरकुमारम उत्पन्न धाय तो तेने एव कुमारनी स्थिति भने संबंध विचारीने कद्देवो (५). वच्चम्यता कहेगी. पण विशेष ए के अहिं असुर १२. वे जो तेज जीव उष्टकानी स्थितियाळा असुरकुमारम उत्पन्न धाय तो जघन्य अने उत्कृष्ट कोइक अधिक पूर्यकोटी पूर्वे का प्रमाणे जाणवुं. पण विशेष एके काळादेशथी जघन्य अने उत्कृष्ट गमनागमन करे (६). अधिक ऋण पत्योपम अने उकृष्ट छ पत्थोपम पटटो काळ यापद गमनागमन करे (७). होय भने असुरकुमारमा उत्पन्न घाय तो तेने प्रथम गमक कहेवो. पण विशेष ए तथा अनुबंध पण एज प्रमाणे जाणवो. काळादेशथी जघन्य दस हजार वर्ष १४. जो ते ( उत्कृष्ट स्थितिवाळो पंचेन्द्रिय तिर्यंच ) जघन्य काळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमां उत्पन्न थाय तो तेने एज वक्तव्यता कवी. पण विशेष ए के अहिं असुरकुमारनी स्थिति अने संवेध विचारीने कहेवो (८). १५. जो ते ( उत्कृष्ट स्थितिवाळो पंचेन्द्रिय तिर्यंच) उत्कृष्टकाळनी स्थितिवाळा असुरकुमारमां उत्पन्न थाय तो ते जघन्य अने उत्कृष्ट ऋण पत्योपमनी स्थितियाळा असुरकुमारमां उत्पन्न धाय इत्यादि पूर्वोक्त वक्तव्यता कवी. पण विशेष एके काळी अपेक्षार जघन्य भने उत्कृष्ट छ पल्योपम - पटलो काळ यावत् - गमनागमन करे ९. १० १६. [प्र० ] हे भगवन्! जो ते असुरकुमारो संख्याता वर्षंना आयुषवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचोची आवीने उत्पन्न चाय तो जलचरोधी आयी उत्पन्न याय- इलादि यावत् हि भगवन् । पर्याप्त संख्याता वर्षना आयुपवाळा संज्ञी पंचेन्द्रिय तिर्यचयोनिक, जे - पक्षीओनुं उत्कृष्ट शरीर धनुषपृथक्त्व प्रमाण होय छे तेने आश्रयी आ कथन छे. For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 214 215 216 217 218 219 220 221 222 223 224 225 226 227 228 229 230 231 232 233 234 235 236 237 238 239 240 241 242 243 244 245 246 247 248 249 250 251 252 253 254 255 256 257 258 259 260 261 262 263 264 265 266 267 268 269 270 271 272 273 274 275 276 277 278 279 280 281 282 283 284 285 286 287 288 289 290 291 292 293 294 295 296 297 298 299 300 301 302 303 304 305 306 307 308 309 310 311 312 313 314 315 316 317 318 319 320 321 322 323 324 325 326 327 328 329 330 331 332 333 334 335 336 337 338 339 340 341 342 343 344 345 346 347 348 349 350 351 352 353 354 355 356 357 358 359 360 361 362 363 364 365 366 367 368 369 370 371 372 373 374 375 376 377 378 379 380 381 382 383 384 385 386 387 388 389 390 391 392 393 394 395 396 397 398 399 400 401 402 403 404 405 406 407 408 409 410 411 412 413 414 415 416 417 418 419 420 421 422 423 424 425 426 427 428 429 430 431 432 433 434 435 436 437 438 439 440 441 442