Book Title: Agam 05 Ang 05 Bhagvati Vyakhya Prajnapti Sutra Part 04
Author(s): Bechardas Doshi
Publisher: Dadar Aradhana Bhavan Jain Poshadhshala Trust
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शतक १८.- ९.
भगवत्सुधर्मस्वामिप्रणीत भगवतीसूत्र, २. [प्र०] अत्थि णं भंते ! भवियदधपुढविकाहया भ०२१ [उ०] हंता अस्थि । [प्र०] से केणटेणं.१ [उ०] गोयमा! जे भविए तिरिफ्खजोणिए वा मणुस्से वा देवे वा पुढविकाइएसु उववजित्ता मे तेण?णं । आउकाइय-वणस्सहकाइयाणं एवं चेव । तेउ-वाऊ-बेइंदिय-तेइंदिय-चरिदियाण य जे भविए तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा, पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं जे भविए नेरइए वा तिरिक्खजोणिए वा मणुस्से या देवे वा पंचिदियतिरिक्खजोणिए था, एवं मणुस्सा वि। वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियाणं जहा नेरइया ।
३. [प्र०] भवियधनेरइयस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ.] गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुकुत्तं, उनोसेणं पुषकोडी।
४. [प्र०] भवियदधअसुरकुमारस्स णं भंते ! केवतियं कालं ठिती पन्नत्ता ? [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुडुत्तं, उक्कोसेणं तिनि पलिओवमाइं । एवं जाव-थणियकुमारस्स ।
५. भवियदधपुढविकाइयस्स णं पुच्छा। [उ०] गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुष्टुत्तं, उक्कोसेणं सातिरेगाई दो सागरोषमाई। एवं आउक्काइयस्स वि । तेउ-बाऊ जहा नेरइयस्स । वणस्सइकाइयस्स जहा पुढविकाइयस्स । बेइंदियस्स तेईदियस्स चडरिदियस्स जहा नेरइयस्स । पंचिदियतिरिक्खजोणियस्स जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं, उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। एवं मणुस्सा वि । वाणमंतर-जोइसिय-वेमाणियस्स जहा असुरकुमारस्स । 'सेवं भंते ! सेवं भंते ति।
अट्ठारसमे सए नवमो उद्देसो समत्तो ।
भव्यद्रव्य पृथिवीकायिकादे.
२. [प्र०] हे भगवन् । 'भव्यद्रव्यपृथिवीकायिको'२ शा हेतुथी कहेवाय छे ! [उ०] हे गौतम ! जे कोइ तिर्यच, मनुष्य के देव पृथिवीकायिकोमा उत्पन्न थवाने योग्य होय छे ते 'भव्यद्रव्यपृथिवीकायिक' २ कहेवाय छे. ए प्रमाणे 'अप्कायिक' अने 'वनस्पतिकायिक' पण जाणवा. अग्निकाय, वायुकाय, द्वीन्द्रिय, श्रीन्द्रिय अने चउरिद्रिय विषे जे कोइ तिर्यंच के मनुष्य उत्पन्न थवाने योग्य होय ते 'भव्यद्रव्यअग्निकायादि' कहेवाय छे. जे कोई नैरयिक, तिर्यंचयोनिक, मनुष्य, देव के पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिक पंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकमा उत्पन्न थवाने योग्य होय ते 'भव्य द्रव्यपंचेंद्रियतियंचयोनिक' कहेवाय छे. ए प्रमाणे मनुष्यो संबंधे पण जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिको अने वैमानिको नैरयिकोनी पेठे जाणवा.
३. [प्र०] हे भगवन् ! भव्य द्रव्यनैरयिकनी केटला काळनी स्थिति कही छे ? उ. हे गौतम ! तेनी स्थिति जघन्यथी *अंतर्महर्त भव्यद्रव्यनैरयिका
'दिनी आयुष स्थिति अने उत्कृष्टथी पूर्वकोटि वर्षनी कही छे.
४.प्र०] हे भगवन् ! भव्य द्रव्य असुरकुमारनी स्थिति केटला काळनी कही छे ! [उ०] हे गौतम । तेनी स्थिति जघन्यथी अिंतमुहर्तनी अने उत्कृष्टथी त्रण पल्योपमनी कही छे. ए प्रमाणे यावत्-स्तनितकुमारो सुधी जाणवू.
५.प्र०] हे भगवन् ! भव्यद्रव्यपृथिवीकायिकनी स्थिति केटला काळनी कही छे ! [उ०] हे गौतम | तेनी स्थिति जघन्यथी अंतमुहर्तनी अजे उत्कृष्टथी काइक अधिक बे सागरोपमनी कही छे. ए प्रमाणे अकायिक संबन्धे पण जाणवू. भव्यद्रव्यअग्निकायिक भव्यद्रव्यवायुकायिक संबन्धे नैरयिकनी पेठे समजवु, वनस्पतिकायिकजे पृथिवीकायिक समान जाणवू भव्य द्रव्य बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय अजे चउरिन्द्रियनी स्थिति नैरयिकनी पेठे जाणवी. वळी भव्यद्रव्यपंचेंद्रियतिर्यंचयोनिकनी स्थिति जघन्यथी अंतर्मुहूर्तनी अने उत्कृष्टथी तेत्रीश सागरोपमनी जाणवी. एज प्रमाणे मनुष्यजे विषे पण जाणवू. वानव्यंतर, ज्योतिषिक तथा वैमानिको असुरकुमारनी पेठे समजवा. 'हे भगवन् ! ते एमज छे हे भगवन् ! ते एमज छे.!
अढारमा शतकमां नवमो उद्देशक समाप्त.
३ * जे संज्ञी के असंज्ञी अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळा मरीने नरकगतिमा जवाना छे ते अपेक्षाए भव्यद्रव्यनैरयिकनी अन्तर्मुहूर्तनी जघन्य स्थिति कही छे, अने उत्कृष्ट पूर्वकोटि आयुषवाळो संज्ञी नरकगतिमां जाय ते अपेक्षाए उत्कृष्ट स्थिति कहेवामां आवी छे-टीका.
जघन्य अन्तर्मुहूर्तना आयुषवाळा मनुष्य के पंचेन्द्रिय तिथंचने आश्रयी भव्य द्रव्य असुरकुमारादिनी जघन्य स्थिति जाणवी अने देवकुर्वादि युगलिक मनुष्यने आश्रयी त्रण पल्योपमनी उत्कृष्ट स्थिति जाणवी.
५ भव्य द्रव्य पृथिवीकायिकनी उत्कृष्ट स्थिति ईशानदेवलोकने आश्रयी साधिक बे सागरोगमनी जाणवी. भव्य द्रव्य अग्निकायिक अने वायुकायिकनी जघन्य अन्तर्मुहूर्त अने उत्कृष्ट पूर्वकोटि स्थिति जाणवी, कारण के देवादि तथा युगलिक मनुष्यो त्यो उत्सन्न थता नथी. भव्य द्रव्य पंचेन्द्रिय तिर्यचनी तेत्रीश सागरोपनी स्थिति सातमी नरक पृथिवीना नारकोनी अपेक्षाए जाणवी.-टीका.
१० भ० स..
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