________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
तैर्भवेऽपि यदहो सुखमिच्छं
स्तस्य साधनतया प्रतिभातैः । मुह्यसि प्रतिकलं विषयेषु,
प्रीतिमेषि न तु साम्यसतत्त्वे ॥३०॥ अर्थ- "धन, सगे-सम्बन्धी, नौकर-चाकर, देवता अथवा परिचित मंत्र, कोई भी यम (मृत्यु) से रक्षा नहीं कर सकता। हे अल्पज्ञ प्राणी! तू ऐसा विचार क्यों नहीं करता? सुख मिलने के साधनरूप प्रतीत होनेवाले, (धन, सगा, नौकर आदि में) बड़े संसार में सुख मिलने की इच्छा रखनेवाले हे भाई ! तू प्रत्येक क्षण विषयों में गर्त होता जाता है, परन्तु समतारूप सच्चे रहस्य में प्रीति नहीं रखता है" ॥२९-३०॥ किं कषायकलुषं कुरुषे स्वं, केषु चिन्ननु मनोऽरिधियात्मन् । तेऽपि ते हि जनकादिरूपैरिष्टतां दधुरनंतभवेषु ॥३१॥
अर्थ - "हे आत्मन् ! कितने ही प्राणियों के साथ शत्रुता रख कर तू अपने मन को क्यों कषायों से मलिन करता है ? (कारण कि) वे तेरे मातापिता आदि के रूप में अनन्त भवों तक तेरी प्रीति के भाजन रह चुके हैं" ॥३१॥ यांश्च शोचसि गताः किमिमे मे,
स्नेहला इति धिया विधुरात्मन् । तैर्भवेषु निहतस्त्वमनंते
ष्वेव तेपि निहता भवता च ॥३२॥ अर्थ - "ये मेरे स्नेही क्यों (मर) गये ! इस प्रकार की