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अध्यात्मकल्पद्रुम
अथ द्वितीयः स्त्रीममत्व-मोचनाधिकारः
मुह्यसि प्रणयचारुगिरासु, प्रीतितः प्रणयिनीषु कृतिंस्त्वम् । किं न वेत्सि पततां भववार्द्धा,
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ता नृणां खलु शिखा गलबद्धाः ॥१ ॥ अर्थ - "हे विद्वान् ! जो स्त्रियों की वाणी स्नेह से तुझे मधुर जान पड़ती है उनपर प्रीति से तू मोह करता है, परन्तु भवसमुद्र में पड़े हुए प्राणियों के लिये वे गर्दन में बाँधे हुए पत्थर के समान हैं । यह तू क्यों नहीं जानता ?" चर्मास्थिमज्जांत्रवसास्त्रमांसामेध्या
द्यशुच्यस्थिरपुद्गलानाम् ।
स्त्रीदेहपिंडाकृतिसंस्थितेषु,
स्कन्धेषु किं पश्यति रम्यमात्मन् ? ॥२॥ अर्थ - " स्त्री के शरीर पिण्ड की आकृति में रहनेवाले चमड़ी, हड्डी, चरबी, आँत, मेद, लहू ( रुधिर), मांस, विष्टा आदि अपवित्र और अस्थिर पुद्गलों के समूह में हे आत्मन् ! तू क्या सुन्दरता देखता है। ?" विलोक्य दूरस्थममेध्यमल्पं, जुगुप्ससे मोटितनासिकस्त्वं ।
भृतेषु तेनैव विमूढ ! योषावपुःषु, तत्किं कुरुषेऽभिलाषम् ॥३॥
अर्थ - " हे मूर्ख ! दूरी पर होनेवाली जरा सी भी