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अध्यात्मकल्पद्रुम ___ अर्थ - "तू प्रमाद से छोटे जीवों को दुःख देनेवाले (कार्यों) कर्मों में निर्दयतापूर्वक क्यों प्रवृत्ति करता है ? प्राणी दूसरों को जो कष्ट एक बार पहुँचाता है वही कष्ट भवान्तर में वह अनन्त बार भोगता है।" यथा सर्पमुखस्थोऽपि, भेको जन्तूनि भक्षयेत् । तथा मृत्युमुखस्थोऽपि, किमात्मन्नर्दसेंऽङ्गिनः ॥११॥
अर्थ - "जिस प्रकार सर्प के मुह में होते हुए भी मेंढ़क अन्य जन्तुओं का भक्षण करता है इसीप्रकार हे आत्मन् ! तू मृत्यु के मुँह में होने पर भी प्राणियों को क्यों कष्ट पहुँचाता है ?" आत्मानमल्पैरिह वञ्चयित्वा,
प्रकल्पितैर्वा तनुचित्तसौख्यः । भवाधमे किं जन ! सागराणि,
सोढ़ासि ही नारकदुःखराशीन् ॥१२॥ अर्थ - "हे मनुष्य ! थोड़े और वह भी माने हुए शरीर तथा मन के सुख के निमित्त इस भव में अपनी आत्मा को वञ्चित रखकर अधम भवों में सागरोपम तक नारकी के दुःख सहन करेगा।"
उरभ्रकाकिण्युदबिन्दुकाम्र __ वणिक्-त्रयीशाकटभिक्षुकाद्यैः । निदर्शनैर्दारितमर्त्यजन्मा,
दुःखी प्रमादैर्बहु शोचितासि ॥१३॥