________________
अध्यात्मकल्पद्रुम
दानमाननुतिवन्दनापरैर्मोदसे निकृतिरञ्जितैर्जनैः । न त्ववैषि सुकृतस्य च्चेल्लवः, कोऽपि सोऽपि तव लुंठ्यते हि तैः ॥२१॥ अर्थ – “तेरी कपटजाल से प्रसन्न होकर मनुष्य तुझे दान देते हैं, नमस्कार करते हैं या वन्दना करते हैं उस समय तू प्रसन्न होता है, परन्तु तू यह नहीं जानता है कि तेरे पास जो एक लेशमात्र सुकृत्य है उसे भी वे लूटकर ले जाते हैं।" भवेद् गुणी मुग्धकृतैर्न हि स्तवै
र्न ख्यातिदानार्चनवन्दनादिभिः ।
८७
विना गुणान्नो भवदुःखसंक्षय
स्ततो गुणानर्जय किं स्तवादिभिः ? ॥२२॥ अर्थ - "भोले जीवों से स्तुति किये जाने पर कोई पुरुष गुणवान नहीं हो सकता है, इसीप्रकार प्रतिष्ठा पाने से तथा दान, अर्चन और पूजन किये जाने से कोई पुरुष गुणवान नहीं हो सकता और बिना गुण के संसार के दुखों का अन्त नहीं हो सकता है, अतएव हे भाई! गुण उपार्जन कर । इस स्तुति आदि से क्या लाभ है ?" अध्येषि शास्त्र सदसद्विचित्रालापादिभिस्ताम्यसि वा समायैः ।
येषां जानानामिह रञ्जनाय,
भवान्तरे ते क्व मुनि ! क्व च त्वम् ॥२३॥