Book Title: Adhyatma Kalpadruma
Author(s): Munisundarsuri
Publisher: Ashapuran Parshwanath Jain Gyanbhandar

View full book text
Previous | Next

Page 111
________________ अध्यात्मकल्पद्रुम अर्थ – “तू (अठारह हजार) शुद्ध शीलांगों को धारण करने वाला बन, योगसिद्धि निष्पादित बन, शरीर की ममता छोड़कर उपसर्गों को सहन कर, समिति और गुप्ति को भलिभांति धारण कर ।" ११० स्वाध्याययोगेषु दधस्व यनं, मध्यस्थवृत्त्यानुसरागमार्थीन् । अगारवो भैक्षमटाविषादी, तौ विशुद्धे वशितेन्द्रियौघः ॥४॥ अर्थ - " स्वाध्याय ध्यान में यत्न कर, मध्यस्थ बुद्धि से आगम के अर्थ का अनुसरण कर, अहंकार का त्याग कर, भिक्षा निमित्त घूम, इसीप्रकार इन्द्रियों के समूह को वश में करके शुद्ध हेतु में दीनता रहित बन ।" ददस्व धर्मार्थितयैव धर्म्यान्, सदोपदेशान् स्वपरादि साम्यान् । जगद्धितैषी नवभिश्च कल्पै ग्रमे कुले वा विहराप्रमत्त ! ॥५॥ अर्थ - "हे मुनि ! तू धर्म प्राप्त करने के हेतु से ऐसे धर्मानुसार उपदेश कर जो स्व और पर के सम्बन्ध में समापन प्रतिपादन करनेवाले हों । तू संसार की भलाई की इच्छा रखकर, प्रमाद रहित होकर, ग्राम अथवा कुल में नवकल्पी विहार कर ।"

Loading...

Page Navigation
1 ... 109 110 111 112 113 114 115 116 117 118